16 Sanskar of Vedic Sanatan Dharma | जन्म से मुत्यु तक के 16 संस्कार

16 Rituals (Sanskar) in Hindi। 16 Sacraments of Sanatan। वैदिक सनातन सोलह संस्कार। 16 संस्कार कब और किस प्रकार करने चाहिए। सोलह संस्कार के नाम। सनातन धर्म के सोलह संस्कार। हिंदू धर्म के पवित्र 16 संस्कार। हिंदू सनातन धर्म के सोलह संस्कार कौन से हैं। 16 संस्कार संक्षिप्त परिचय। सनातन धर्म के जन्म से लेकर, मृत्यु तक 16 संस्कार। सोलह संस्कार शास्त्रों के अनुसार। सोलह संस्कार का महत्व व कब-कब किए जाते है। सनातन हिंदू धर्म के सोलह संस्कार। Importance and Valuable Benefits of 16 Sanskar। Sixteen Sanskar of Hindu। Hindu Dharm ke 16 Sanskar Kya Hai। Name of 16 Sanskar।

 दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म में से एक, सनातन धर्म की विशालता से सभी परिचित हैं। बौद्ध, जैन, इसाई, इस्लाम आदि धर्मों को, उनके गुरुओं द्वारा स्थापित किया गया। इसके बाद उसके अनुयायियों ने, इसका प्रचार की किया। हिंदू धर्म के तथ्य, इससे काफी अलग है।

      सनातन धर्म प्राचीन काल से चला आ रहा है। यह विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है। इस धर्म में व्यक्तिगत जीवन के लिए, जो भी नियम बनाए गए हैं। उनका वैज्ञानिक आधार भी है। जैसे जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया है। इन आश्रमों में रहते हुए। मनुष्य को 16 प्रकार के संस्कारों का पालन करना, अनिवार्य माना गया है। 

        आज सनातन धर्म में, प्रमुख सोलह संस्कार होते हैं। प्राचीन काल में, इन्ही संस्कारों की संख्या 40 हुआ करती थी। हिन्दू अथवा सनातन धर्म की संस्कृति, संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिए, संस्कारों का अविष्कार किया।

     धार्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी, इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में, इन संस्कारों का काफी महत्त्व है। महर्षि अंगिरा ने, इनका अंतर्धाम 25 संस्कारों में किया है।

       जीवन के इन नियमों को बनाने का श्रेय महाऋषि वेदव्यास को जाता है। व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक, पवित्र 16 संस्कार बनाए गए हैं। जिनके पालन से, उसके पुण्य का खाता बढ़ता है। कोई व्यक्ति कितना भी मॉडर्न क्यों न हो जाए। लेकिन संस्कार कभी पुराने नहीं होते। हम बाहर से कितने भी strong नजर आए। लेकिन हमारी नींव संस्कारों से ही मजबूत होती है।

      संस्कार का हमारे देश का विश्व को  देना। सबसे बड़ी देन में से एक है। इन्हीं संस्कार, जिनके बल पर कई भारतीयों ने, प्राचीन काल में अपने पराक्रम व प्रतिभा से पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया। जानते हैं, सबसे पुरातन सनातन धर्म के, इन 16 संस्कार और उनके महत्व के बारे में।

Name of 16 Sanskar

संस्कार की परिभाषा व संस्कार क्या होते है
What are the Rituals and Definition of Sacrament

   महर्षि वेदव्यास ने संस्कार शब्द को परिभाषित करते हुए बताया है। संस्कार अपने भीतर कई गुणों को, समाए हुए हैं। ठीक करना, दुरुस्ती, सुधार, दोष, त्रुटि का निकाला जाना। मन में सकारात्मक विचारों का पैदा करना। खुद को पवित्र करना। संवर्धन, तहजीवन शिष्टता, धार्मिक कृत्य आदि सभी संस्कार का ही हिस्सा है।

       संस्कार शब्द का मूल अर्थ शुद्धिकरण है। मूलतः संस्कार का अभिप्राय, उन धार्मिक क्रिया-प्रक्रिया से है। जो किसी मनुष्य को अपने समुदाय का, पूर्ण रूप से योग्य सदस्य  बनाने के उद्देश्य की जाती है। यह उसके मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते हैं। सनातन धर्म की यह 16 संस्कार हमारे जीवन के हर महत्वपूर्ण पड़ाव में आते हैं

        संस्कार किसी भी धर्म की, वह चेतना है। जो उस धर्म के मानने वालों को, जीने का तरीका सिखाती है। संस्कार हमारे धार्मिक और सामाजिक जीवन की पहचान होते हैं। हिंदुओं के लिए 16 संस्कारों का प्रावधान रखा गया। ऐसा माना जाता है कि इनका पालन करने से, गुणों में वृद्धि होती है। हालांकि अलग-अलग शास्त्रों में, संस्कारों की संख्या भी अलग है।

      जैसे महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कारों का वर्णन किया है। जबकि कुछ जगह पर, मनुष्य जीवन के 48 तरीके बताए गए हैं। लेकिन इन सबमें, सबसे सटीक विवरण महर्षि वेदव्यास ने किया है। यही कारण है कि हिंदुओं में, उनके बताए गए सोलह संस्कारों का प्रचलन है।

     मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिए, पहले शोध किए। फिर परिणाम देखने के बाद, नियमों का संकलन किया है। हिंदू धर्म के 16 संस्कारों को सामाजिक शास्त्र और मनोविज्ञान से जुड़े चिकित्सक और वैज्ञानिकों ने भी मान्यता दी है। जानते हैं, इन 16 संस्कारों के बारे में।

16 संस्कार का संक्षिप्त परिचय
Brief Introduction of 16 Sanskar (Rituals)

पहला संस्कार – गर्भाधान

      गर्भाधान संस्कार बच्चे के जन्म से पहले ही किया जाता है। जिससे हमें योग्य, गुणवान व आदर्श संतान की प्राप्ति हो। बच्चे के माता-पिता को, सभी आशीर्वाद देते हैं। एक योग्य और गुणवान बच्चा पैदा करने के लिए, उसके माता और पिता को चाहिए। कि वह शुद्ध विचार रखें। शास्त्र के नियमों का पालन करें।

       जब स्त्री और पुरुष दिव्य संतान की उत्पत्ति हेतु, शारीरिक संबंध बनाते हैं। उसे गर्भाधान संस्कार कहा जाता है। यहां केवल वंश वृद्धि के उद्देश से ही, स्त्री-पुरुष संभोग करते हैं। वासनाग्रस्त होकर, केवल मनोरंजन के लिए, यह प्रक्रिया नहीं की जाती। आचार्य चरक के अनुसार, गर्भाधान के समय स्त्री और पुरुष को शारीरिक रूप से पुष्ट हो। केवल प्रसन्नचित्त मनोवस्था में ही विधि पूर्वक, यह संस्कार संपन्न हो। यह बहुत ही आवश्यक है।

       विशेष स्थिति में, योग के ऋतु में, सही समय पर, दिव्य आत्मा का गर्भ में आवाहन करके। ईश्वर के प्रति घोर समर्पण भाव रखते हुए। स्त्री-पुरुष गर्भधारण की प्रक्रिया में भाग लेते हैं। इस दिव्य गर्भाधान की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप, ईश्वर के दिव्य गुणों वाली आत्मा को, संतान के रूप में प्राप्त किया जाता है।

 

दूसरा संस्कार – पुंसवन

 

       पुंसवन संस्कार को गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से, उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में, इस संस्कार को करने का विधान है। हमारे मनीषियों ने संतानोंत्कर्ष के उद्देश्य से किए जाने वाले, इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से संबंधित, इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में संपन्न किया जाता है।

     इसका प्रयोजन केवल इतना है कि गर्भ में पल रहा शिशु स्वस्थ हो। जो दैवीय आत्मा शरीर में प्रवेश कर चुकी है। उसका संरक्षण और संवर्धन करने के लिए, गर्भवती माता को योग्य बनाने हेतु, यह संस्कार किया जाता है। क्षेष्ठ संतान उत्पन्न करने के लिए, गर्भवती स्त्री को निश्चित जीवन शैली व पौष्टिक भोजन प्रणाली को, अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाना पड़ता है।

     तभी शारीरिक एवं मानसिक रूप से सशक्त, बलवान और गुणवान संतान की प्राप्ति संभव होती है। इस संस्कार में गर्भवती स्त्री को शिष्टबद्ध जीवनशैली के लिए तैयार किया जाता है। ताकि उसका स्वास्थ्य इतना उत्तम हो। कि उसे किसी भी प्रकार की शारीरिक व्याधि न रहे।

 

 तीसरा संस्कार – सीमन्तोन्नयन

 

     सीमन्तोन्नयन संस्कार का अभिप्राय है। सौभाग्य उत्पन्न करना। यानी गर्भपात रोकने के साथ-साथ, गर्भस्थ शिशु और उसकी माता की रक्षा करने के लिए। सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भर के इसे करती है। यह संस्कार गर्भधारण के छठे या सातवें महीने में किया जाता है। 

        इस समय गर्भस्थ शिशु बड़ी तेजी से सीख रहा होता है। इसी समय गर्भस्थ शिशु का इमोशनल सेंटर भी बन जाता है। वह अपने मां के सारे आचार-विचार, वाणी, व्यवहार और भावनाओं को एक पुंज की तरह ग्रहण करता है। इसीलिए गर्भवती स्त्री को प्रसन्न करने के लिए यह संस्कार किया जाता है।

     ताकि गर्भवती माता सकारात्मक मनोवस्था में रहकर, इसे सिंचित कर सके। ताकि एक गुणवान और संस्कारी संतान की प्राप्ति हो सके। मुख्य रूप से इस संस्कार का उद्देश्य, गर्भस्थ शिशु और उसकी मां का मां की रक्षा करना ही नहीं होता। बल्कि उनके मन में प्रफुल्लता पैदा करना भी होता है।

 

चौथा संस्कार – जातकर्म

 

      यह संस्कार नवजात शिशु के नार छेदन के समय किया जाता है। यह संस्कार शिशु के जन्म के तुरंत बाद किया जाता है। ताकि जन्म से संबंधित सारे दोषों का निवारण हो सके। शिशु के नाक छेदन से पूर्व, सोने की चम्मच या अनामिका उंगली से, असामान्य मात्रा में मिलाया हुआ शहद और गाय का घी चटाया जाता है। गाय का घी आयु बढ़ाने वाला और पित्त शामक होता है।

      वहीं शहद कफ नाशक होता है। सोने की चम्मच से या सलाई से, जब यह चटाया जाता है। तब त्रिदोष यानी वात, पित्त और कफ की प्रकृति संतुलित हो जाती है। तत्पश्चात शिशु को, पहला स्तनपान करवाया जाता है। इस समय जो मंत्र बोला जाता है। उसका अर्थ है – यह अन्न ही प्रज्ञा है। यही आयु है, यही अमृत है। तुमको यह सब प्राप्त हो।

 पांचवा संस्कार – नामकरण

    नामकरण संस्कार प्रायः जन्म के 11 दिन किया जाता है। अथवा किसी भी शुभ नक्षत्र में, इसको संपादित किया जाता है। नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में बहुत महत्व है। हमारे मनीषियों ने नाम का महत्व, इसलिए भी अधिक बताया है। क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है।

     इससे उस बालक को, एक पहचान मिलती है। कहा भी गया है कि ‘राम से बड़ा राम का नाम, यानी वह नाम यहां पर बहुत महत्वपूर्ण है। हमारी परंपरा कुछ ऐसी रही है कि हमारे सनातन परंपरा के, जो नाम होते थे। उनका अर्थ किसी न किसी रूप में, हमारे किसी न किसी देव के साथ जोड़ा जाता था। लेकिन आजकल हमारे बच्चों के नाम वैसे नहीं मिलते। यह हम सभी के लिए, दुर्भाग्यजनक है।

 

छठा संस्कार – निष्क्रमण

 

       दैवीय जगत से, शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े। ब्रह्मा जी की सृष्टि से, वह अच्छे तरीके से परिचित होकर। दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए, इस लोक का भोग करें। यही इस संस्कार को परिभाषित करता है। दरअसल निष्क्रमण का मतलब होता है। बाहर निकलना।

     यानी जब तक चंद्रमा और सूर्य आदि से बालक का कभी सामना नहीं होता। यानी वह बालक घर के भीतर ही रहता है। उसको बाहर की रोशनी का प्रत्यक्ष अनुभव, इस संस्कार के माध्यम से करवाया जाता है। सूर्य का तेज हो या चंद्रमा की शीतलता हो। इन चीजों से बालक को, पहली बार परिचित करवाया जाता है।

      आमतौर पर, जन्म के तीसरे या चौथे महीने में इस संस्कार को संपादित किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि तब तक बालक, इतना परिपक्व नहीं होता। कि वह बाहरी दुनिया या प्रकाश आदि को सहन कर सके। इसलिए इसका समय, जन्म के तीन-चार महीने उपरांत रखा जाता है।

 

सातवाँ संस्कार – अन्नप्राशन

 

        किसी भी बालक या व्यक्ति को, उसके विकास के लिए, अन्न ग्रहण करना जरूरी होता है। अन्नप्राशन संस्कार के द्वारा, बालक को सबसे पहले खाद्य वस्तुएं दी जाती है। इसके पहले के समय तक, बालक सिर्फ अपनी मां के दूध पर ही जीवित था। लेकिन यहां से उसको बाहरी वस्तुओं को खिलाना-पिलाना शुरू किया जाता है।

      यह पूरी तरीके से वैज्ञानिक है। क्योंकि जब बालक या बालिका 6 महीने की हो जाती है। तब उसे यह संस्कार करवाया जाता है। हमारा विज्ञान भी मानता है। कि 6 महीने तक बालक को माता के दूध के अतिरिक्त, किसी अन्य वस्तु को खिलाना  नहीं चाहिए।

       इस संस्कार के द्वारा, उसको बाहरी वस्तुए खिलाना शुरू की जाती है। क्योंकि अन्न को, शास्त्रों में प्राण कहा गया है। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में, अन्न का सर्वाधिक योगदान रहा है। इस संस्कार के माध्यम से, सबसे पहली बार खीर या मिष्ठान खिलाने का प्रावधान रखा गया है।

 

आठवां संस्कार – चूड़ाकर्म

 

     आचार्यों ने बालक के पहले, तीसरे व पांचवें वर्ष में, इस संस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे, बालक के जन्म के समय जो बाल थे।  उनका त्याग करना होता है। इसको हम लोग मुंडन संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में, बालक का मुंडन करके, वैदिक मंत्रों के साथ उसके जन्म के बालों को हटाया जाता है।

नवां संस्कार – विद्यारम्भ

      चूड़ाकर्म संस्कार के बाद, विद्यारंभ की जाती है। विद्यारंभ के बारे में, हमारे आचार्य  के अलग-अलग मत हैं। कुछ का मत है कि विद्यारंभ अन्नप्राशन के बाद शुरू हो जाती है। हालांकि उस समय बालक इतना छोटा होता है। कि उस समय विद्यारंभ नहीं हो पाती। इसकी शुरुआत चूड़ाकर्म संस्कार के बाद ही की जाती है।

     उसकी प्रथम गुरु, उसकी मां होती है। इस समय बालक को, किसी गुरुकुल में भेजने की आवश्यकता नहीं होती। बल्कि मां-बाप ही प्रथम शिक्षक के रूप में कार्य करते हैं। जो उन्हें सामान्य व्यवहारिक शिक्षाएं देना शुरू करते हैं। चाहे वह बोलना या चलना सीखने की बात हो। इसे भी विद्यारंभ के रूप में माना जाता है।

 

दसवाँ संस्कार – कर्णभेदन

 

      कर्णभेदन का मतलब है। कानों में छेद करना। इसे हम लोग सामान्यतया गहने  पहनने वाले छेद मान सकते हैं। लेकिन इसकी वैज्ञानिकता यह भी है कि यह एक्यूपंचर की तरह काम करता है। कर्णभेदन के द्वारा न केवल, हमारी श्रवण शक्ति बढ़ती है। बल्कि इसके द्वारा, कई प्रकार की कान संबंधी व्याधियां भी दूर होती है।

 

ग्यारहवां संस्कार – यज्ञोपवीत या उपनयन

 

     यज्ञोपवीत संस्कार यानी जनेऊ धारण करना है। यज्ञोपवीत या उपनयन बौद्धिक विकास की दृष्टि से, बहुत महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति का, इस संस्कार में पूरी तरीके से समावेश है। हमारे मनीषियों ने, इस संस्कार के माध्यम से, वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने की बात कही है।

      आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र विशेष रूप से महत्त्व रखता है। इस पर अब तक बहुत सारे शोध हो चुके हैं। यज्ञोपवित को हम लोग जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। यह अत्यंत पवित्र संस्कार है। इसे हर सनातनी को जरूर करना चाहिए।

 

बारहवाँ संस्कार – वेदारम्भ

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       वेदारम्भ संस्कार में, वेद पढ़ने का समय, यहां से शुरू होता है। इसका मतलब यह भी है कि बालक अपने घर से गुरुकुल में प्रस्थान करेगा। वह गुरुकुल में आचार्यों व गुरुओं की शरण में रहकर, अपनी विद्या अध्ययन करता है। वेदों का अध्ययन करता है।     वेद अध्ययन का मतलब यह नहीं है कि केवल संस्कृत के, कुछ ग्रंथों का अध्ययन करना हो। बल्कि वेद अध्ययन का वास्तविक अर्थ यह है। वह तमाम प्रकार की सांसारिक विद्याओं का, वह ज्ञान प्राप्त करें। चाहे वह रणकौशल हो या जीवन जीने के अन्य पहलू।

तेरहवाँ संस्कार – केशान्त

केशांत संस्कार का उद्देश्य था। जब बालक विद्या पूर्ण कर लेता था। तो विद्या पूर्ण करने के पश्चात, अपने आचार्यों के समक्ष, अपने ब्रह्मचर्य के बालों को हटा दिया जाता था। यह संस्कार का उद्देश्य था। यानी कि यह विद्या की पूर्णता का यह प्रतीक था।

 

चौदहवां संस्कार – समावर्तन

 

         समावर्तन संस्कार, गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व, ब्रह्मचारी का केशांत संस्कार होता था। इसके बाद, उस बालक को स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगंधित पदार्थों और औषधि युक्त जल से भरे हुए। वेंदी के उत्तर भाग में, 8 घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है।

        यह स्नान विशेष मंत्रोच्चार के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी अपनी मेखला और दंड का त्याग कर देता था। आचार्य उसे विद्या स्नातक की उपाधि देते थे। इस उपाधि से वह गर्व के साथ, गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। उसे सुंदर वस्त्र दिए जाते थे। आभूषण दिए जाते थे। आचार्य और गुरुजनों के आशीर्वाद को ग्रहण कर। बालक गुरुकुल से विदा होता था। फिर अपनी एक नई यात्रा का शुभारंभ करता था।

 

पंद्रहवाँ संस्कार – पाणीग्रहण

 

      पाणीग्रहण संस्कार को विवाह संस्कार भी कहा जाता है। यह संस्कार प्राचीन समय से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिए, सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक, ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का, हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद, जब बालक से युवा बनकर। सामाजिक परंपरा का निर्वहन करने की क्षमता और परिपक्वता व्यक्ति में आ जाती है।

     तब उसे गृहस्थ धर्म में प्रवेश करवाया जाता है। लगभग 25 वर्ष की आयु में, यह संस्कार होता है। शास्त्रों में अलग-अलग प्रकार के विवाह का उल्लेख किया गया है। जिसमें आठ प्रकार के विवाह बताए गए है। जो कि इस प्रकार हैं- ब्रह्म, दैव, आर्य, प्राजापत्य, असुर, गन्धर्व, राक्षस और पिशाच।

        वैदिक काल में, सभी प्रथाएं प्रचलित थी। समय के अनुसार, इनका स्वरूप बदलता गया। वर्तमान में, हम लोग जिस रीति-रिवाज में रहते हैं। उसी तरह के विवाह को मान्यता भी देते हैं।

 

सोलहवाँ संस्कार – अंत्येष्टि

 

       अंत्येष्टि संस्कार यानी कि अंतिम संस्कार या दाह कर्म संस्कार। व्यक्ति की मृत्यु के बाद मृत शरीर को, अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। इसे अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहते हैं। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही। अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों में मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत क्रिया करने से। जीव की अतिरिक्त वासनाए शांत हो जाती हैं।

      हमारे शास्त्रों में, बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गई है। जब तक जीव शरीर धारण करके, इहलोक में निवास करता है। तो वह विभिन्न कर्मों से बंधा रहता है। प्राण छूटने के बाद, वह इस लोक को छोड़ देता है।

     उसके बाद की परिकल्पना में, विभिन्न लोकों के अलावा, मोक्ष या निर्वाण है। जिसके बारे में, हमारे शास्त्रों में अलग-अलग टिप्पणियां की गई हैं। जैसा कर्म, वैसा उसका फल। इस प्रकार के विधान किए गए है।

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