12 Jyotirling – naam, kahan kahan hai, mantra, shlok [ 12 ज्योतिर्लिंग के नाम और स्थान, कहां कहां है, सबसे बड़ा ज्योतिर्लिंग कौन सा है, श्लोक ]
12 Jyotirling Ke Naam
12 ज्योतिर्लिंग के नाम और स्थान
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालम्ॐकारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमाशंकरम्।
सेतुबंधे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यंबकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारम् घुश्मेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
॥ इति द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तुति संपूर्णम् ॥
यह 12 ज्योतिर्लिंगों के नाम है। जो व्यक्ति प्रातः काल व सायंकाल के समय, इन 12 ज्योतिर्लिंगों के नामों का पाठ करता है। उसके सात जन्मों के पापों का विनाश होता है। मात्र चार श्लोक व 12 ज्योतिर्लिंगों के नामों से युक्त यह द्वादश ज्योतिर्लिंग स्त्रोत है।
पृथ्वी पर भगवान शिव जहां-जहां स्वंय प्रकट हुए। उस स्थान पर भगवान शिव ज्योति के रूप में, शिवलिंग के अंदर समाहित हो गए। वह ज्योतिर्लिंग बन गया। इस प्रकार भगवान शिव पृथ्वी पर 12 शिवलिंग में ज्योति के रूप में समाहित हुए थे। इसलिए शिव पुराण में कुल 12 ज्योतिर्लिंगों का वर्णन मिलता है।
ऐसी मान्यता है कि जो लोग भी इन 12 ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर लेते हैं। उन्हें जीवन में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है। मृत्यु के पश्चात उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है। लेकिन बहुत कम लोग हैं जो 12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन कर पाते हैं। जानते हैं। कहां हैं, यह 12 ज्योतिर्लिंग और उनके महत्व के बारे में। इसी प्रकार जाने : कैलाश पर्वत की कहानी, इतिहास व रहस्य। क्यों है कैलाश पर्वत अजेय।
12 Jyotirling
श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
गुजरात प्रांत के सौराष्ट्र क्षेत्र में, समुद्र के किनारे सोमनाथ नामक मंदिर में, यह ज्योतिर्लिंग स्थापित है। दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं कन्याएं थी। उनका विवाह चंद्र देव के साथ हुआ था। तब वह नक्षत्र बने। लेकिन चंद्रमा का प्रेम सिर्फ रोहणी के प्रति ही रहता था। इस बात से अन्य नक्षत्र यानी दक्ष प्रजापति की कन्याए बहुत दुखी रहती थी।
उन्होंने अपनी यह व्यथा, अपने पिता को सुनाई। जिसके लिए दक्ष प्रजापति ने चंद्रदेव को अनेक बार, अनेक प्रकार से समझाया। लेकिन रोहणी के प्रेम से वशीभूत, उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततः दक्ष ने क्रोधित होकर, उन्हें क्षयग्रस्त होने का श्राप दे दिया। इसके कारण चंद्रदेव तुरंत से क्षयग्रस्त हो गए। जिससे पृथ्वी पर उनका सारा कार्य रुक गया।
ब्रह्मा जी ने कहा, चंद्रमा अन्य देवों के साथ पवित्र प्रभास क्षेत्र में जाकर। मृत्युंजय भगवान शिव की आराधना करें। उनकी कृपा से अवश्य ही, यह रोग मुक्त हो जाएंगे। उनके कथा अनुसार ही, चंद्रदेव में घोर तपस्या की। 10 करोड़ बार महामृत्युंजय मंत्र का जप किया। इससे प्रसन्न होकर, मृत्युंजय भगवान शिव जी ने, उन्हें अमृत्व का वर प्रदान किया। उन्होंने कहा कि कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन, आपकी एक-एक कला क्षीण होगी।
लेकिन पुनः शुक्ल पक्ष में, उसी क्रम से आपकी एक-एक कला बढ़ जाया करेगी। इस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा को, आपका पूर्ण चंद्रत्व प्राप्त होता रहेगा। श्रापमुक्त होकर, चंद्रदेव ने भगवान शिव से प्रार्थना की। कि आप माता पार्वती जी के साथ, सदा के लिए प्राणियों के उद्धार हेतु, यहां निवास करें। भगवान शिव जी ने, उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार किया। तभी से भगवान शिव, माता पार्वती के साथ ज्योतिर्लिंग के रूप में यहां रहने लगे।
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श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर, श्रीशैल पर्वत पर श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्थित है। इन्हें दक्षिण का कैलाश भी कहा जाता है। कथा अनुसार, एक समय की बात है। भगवान शंकर जी के दोनों पुत्र, गणेश जी और कार्तिकेय जी विवाह के लिए, परस्पर झगड़ने लगे। दोनों का आग्रह था कि पहले उनका विवाह किया जाए।
तब भगवान शिव जी और मां भवानी ने कहा। आप लोगों में से जो पहले पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर। यहां वापस लौट आएगा। उसी का विवाह पहले किया जाएगा। माता-पिता की यह बात सुनकर, कार्तिकेय जी ने अपने वाहन मयूर पर विराजित होकर। तुरंत पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल गए। लेकिन गणेश जी के लिए, यह कार्य बड़ा कठिन था।
एक तो विशाल काया, ऊपर से छोटा वाहन। वह श्री कार्तिकेय जी के मयूर की बराबरी करें तो कैसे। लेकिन गणेश जी की बुद्धि अत्यंत सूक्ष्म व तीक्ष्ण थी। उन्होंने सामने बैठे माता-पिता की सात परिक्रमा करके। पृथ्वी परिक्रमा का कार्य पूरा कर लिया। पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करके, जब कार्तिकेय जी लौटे। तब तक श्री गणेश जी का रिद्धि-सिद्धि से विवाह हो चुका था।
यह सब देखकर, कार्तिकेय जी अत्यंत रुष्ट होकर, क्रौंच पर्वत पर चले गए। माता पार्वती जी उन्हें वहाँ मनाने पहुंची। तभी पीछे-पीछे भगवान शंकर भी पहुंचकर, ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। तब से श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रख्यात हुए। यह कथन के अनुसार, मां भवानी का एक नाम मल्लिका है। भगवान शिव जी का एक नाम अर्जुन है। इसलिए इस ज्योतिर्लिंग का नाम मल्लिकार्जुन पड़ा। इसी प्रकार जाने : भगवान शिव जी से जुड़े रहस्य। Mysterious Facts of Lord Shiva।
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श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
यह परम पवित्र ज्योतिर्लिंग, मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में है। कथा के अनुसार, प्राचीन काल में उज्जैनी में राजा चंद्रसेन राज्य करते थे। वह एक परम शिव भक्त थे। एक दिन श्रीकर्ण नामक 5 वर्ष का गोप बालक, अपनी माँ के साथ वहां से गुजर रहा था। राजा का शिव पूजन देखकर, उसे बहुत विस्मय और कौतूहल हुआ।
वह उसी प्रकार व सामग्रियों से शिव पूजन करने के लिए लालायित हो उठा। सामग्री का साधन न जुट पाने पर। लौटते समय, उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। घर जाकर उसी पत्थर को शिव रूप में स्थापित कर दिया। फिर पुष्प व चंदन आदि से परम् श्रद्धा पूर्वक, उनकी पूजा करने लगा। माता भोजन के लिए पुकारे। लेकिन वह पूजन छोड़कर, उठने के लिए तैयार ही नहीं था।
अंत में माता ने झल्लाकर पत्थर का वो टुकड़ा फेंक दिया। इससे बालक दुखी होकर रोते हुए। भगवान शिव को पुकारने लगा। रोते-रोते बेहोश होकर, वह वहीं गिर पड़ा। बालक की अपने प्रति भक्ति और प्रेम देखकर, भोलेनाथ भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए। बालक ने जैसे ही होश में आकर अपने नेत्र खोले।
तो उसने देखा। उसके सामने एक बहुत ही भव्य और अति विशाल, स्वर्ण और रत्नों से जड़ित मंदिर खड़ा है। उस मंदिर के अंदर, एक बहुत ही प्रकाश पूर्ण व तेजस्वी ज्योतिर्लिंग खड़ा है। यह महाकालेश्वर की कथा थी।
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श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। कथा अनुसार, एक बार विंध्य पर्वत ने पार्थिव अर्चना के साथ, भगवान शिव जी की 6 मास तक कठिन उपासना की। उनकी इस उपासना से प्रसन्न होकर, भूत भावन शंकर जी वहां प्रकट हुए। उन्होंने विंध्य को, उनके मनवांछित वर प्रदान किए।
विंध्याचल के इस वर प्राप्ति के अवसर पर, वहां बहुत से ऋषिगण और मुनिगण भी पधारें। उनकी प्रार्थना पर शिव जी ने, अपने ओमकारेश्वर नामक लिंग के दो भाग किए। एक का नाम ओमकारेश्वर और दूसरे का नाम अमलेश्वर पड़ा। इसी प्रकार जाने : भगवान विष्णु की उत्पत्ति का रहस्य। Mystery of God Vishnu।
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श्री केदारनाथ ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
यह ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की, केदार नामक चोटी पर स्थित है। कथा अनुसार, केदार नामक अत्यंत शोभाशाली श्रंग पर। महातपस्वी नर और नारायण ने, कई वर्षों तक भगवान शिव जी को प्रसन्न करने के लिए, बड़ी कठिन तपस्या की। भगवान शिव जी उनकी कठिन साधना से प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर, उन दोनों ऋषियों को दर्शन दिए।
भगवान शिव जी ने उनसे वर मांगने के लिए कहा। भगवान शिव जी की यह बात सुनकर, दोनों ऋषियों ने उनसे कहा। प्रभु, आप मनुष्यों के कल्याण और उनके उद्धार के लिए। अपने स्वरूप को यहां स्थापित करने की, हमारी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करें। उनकी प्रार्थना सुनकर, भगवान शिव जी ने ज्योतिर्लिंग के रूप में वहां वास करना स्वीकार किया।
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श्री भीमेश्वर ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के Sahyadri सह्याद्रि की पहाड़ी पर स्थित है। कथा अनुसार, प्राचीनकाल भीम नामक एक महा प्रतापी राक्षस था। वह महाबली राक्षसराज रावण के छोटे भाई कुम्भकर्ण का पुत्र था। उसने कामरूप के परम शिवभक्त राजा सुदक्षिण पर आक्रमण किया। उन्हें मंत्रियों और अनुचरों सहित बंदी बना लिया।
इधर राक्षस भीम के बंदीगृह में पड़े हुए। राजा सुदक्षिण ने भगवान शिव का ध्यान किया। वे अपने सामने पार्थिव शिवलिंग रखकर, अर्चना कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख। राक्षस भीम ने, उस पार्थिव शिवलिंग पर प्रहार किया। लेकिन उसकी तलवार का स्पर्श भी, उस शिवलिंग से हो भी नहीं पाया। तभी उसके भीतर से, साक्षात शिव जी वहां पर प्रकट हो गए।
उन्होंने अपनी हुंकार मात्र से, उस राक्षस को वही जलाकर भस्म कर दिया। भगवान शिव जी का यह अद्भुत कृत्य देखकर। सारे ऋषि-मुनि और देवगण वहां उनकी स्तुति करने लगे। उन लोगों ने भगवान शिव जी से प्रार्थना की। हे महादेव, आप लोककल्यार्थ अब सदा यही निवास करें।
भगवान शिव जी ने, उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। वहां वह ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए, निवास करने लगे। उनका यह ज्योतिर्लिंग भीमेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। इसी प्रकार जाने : भगवान विष्णु के दशावतार की कथा। Bhagwan Vishnu Ke 10 avatar in Hindi।
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श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिगा व इसका महत्व
यह ज्योतिर्लिंग उत्तर भारत के प्रसिद्ध नगर काशी में स्थित है। भगवान शंकर पार्वती जी से विवाह करके, कैलाश पर्वत पर रह रहे थे। लेकिन वहां पिता के घर पर ही विवाहित जीवन बिताना। मां पार्वती जी को अच्छा नहीं लग रहा था। एक दिन उन्होंने भगवान शिव जी से कहा। आप मुझे अपने घर ले चलिए। यहां रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।
सारी लड़कियां शादी के बाद, अपने पति के घर जाती हैं। मुझे पिता के घर में ही रहना पड़ रहा है। ऐसा मां पार्वती जी ने इसलिए कहा। क्योंकि वह पर्वतराज हिमालय की पुत्री थी। तब भगवान शिव जी ने, उनकी यह बात स्वीकार कर ली। माता पार्वती को साथ लेकर, अपनी पवित्र नगरी काशी में आ गए। यहां आकर वे विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।
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श्री त्रिंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र प्रांत में नासिक से 30 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है। इसकी कथा इस प्रकार है। एक बार महाऋषि गौतम जी के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियां। किसी बात पर, उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गई। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम जी का अपकार करने को प्रेरित किया।
उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान गणेश जी की आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर, श्री गणेश जी ने प्रकट होकर, उनसे वर मांगने को कहा। तब उन ब्राह्मणों ने कहा। हे प्रभु, यदि आप हम पर प्रसन्न हैं। तो किसी प्रकार ऋषि गौतम जी को इस आश्रम के बाहर निकाल दे।
उनकी यह बात सुनकर, श्री गणेश जी ने ऐसा वर मांगने के लिए, उन्हें समझाया। लेकिन वे अपने आग्रह पर अडिग रहें। अंततः श्री गणेश जी को विवश होकर, उनकी बात माननी पड़ी। वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके। ऋषि गौतम जी के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर, बड़े नरमी के साथ। हाथ में द्रढ लेकर, उसे हाँकने के लिए आगे बढ़े।
उस द्रढ का स्पर्श होते ही, वह गाय वही मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मच गया। सारे ब्राह्मण एकत्र हो, गौ हत्यारा कह कर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। सभी ब्राह्मण ने कहा कि आपको यह आश्रम छोड़ कहीं अन्यत्र चले जाना चाहिए। गौ हत्यारे के निकट रहने से, हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर, ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ, वहां से एक कोस दूर जाकर रहने लगे।
लेकिन उन ब्राह्मणों ने, वहां भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे। गौ हत्या के बाद, आपको अब वेद पाठ व यज्ञ करने का कोई अधिकार नहीं। ऋषि ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की। आप ही इसका कोई उपाय बताएं। तब उन्होंने कहा कि आप अपने पाप को, सर्वत्र बताते हुए। 3 बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करें। फिर लौटकर, यहां 1 महीने तक व्रत करें।
इसके बाद ब्रम्हगिरी की 101 परिक्रमा करने के बाद, आपकी शुद्धि होगी। अथवा यहां गंगा जी को लाकर, उनके जल से स्नान करके। एक करोड़ पार्थ शिवलिंग से, शिवजी की आराधना करें। इसके बाद पुनः गंगा जी में स्नान करके, इस ब्रम्हगिरी की 11 बार परिक्रमा करें। फिर 100 घड़ो के पवित्र जल से, पार्थ शिवलिंग को स्नान कराने से, आपका उद्धार होगा।
ब्राह्मणों के कथानुसार, महा ऋषि गौतम जी ने सारे कार्य पूरे किये। उन्होंने अपनी पत्नी के साथ, पूर्णतया तल्लीन होकर, भगवान शिवजी की आराधना की। इससे प्रसन्न हो। भगवान शिव ने प्रकट होकर, उनसे वर मांगने को कहा। ऋषि गौतम ने कहा। आप मुझे गौ-हत्या के पाप से मुक्त कर दें। तब शिव जी ने कहा। हे गौतम, आप सर्वथा निष्पाप हो।
गौ-हत्या का अपराध, आप पर क्षल पूर्वक लगाया गया था। अतः मैं उन ब्राह्मणों को दंड देना चाहता हूं। इस पर महाऋषि गौतम जी ने, उन्हें क्षमा करने की प्रार्थना की। उन्होंने शिवजी से वहाँ हमेशा निवास करने की प्रार्थना की। शिव जी उनकी बात मानकर, वहां त्रयंब ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतम जी द्वारा लाई गई। गंगा जी भी वहां पास में, गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगी। इसी प्रकार जाने : स्वस्तिक का सनातन धर्म मे क्या महत्व है। Origin of the Swastika Sign।
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श्री बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
यह ज्योतिर्लिंग झारखंड प्रांत के संथाल परगना में स्थित है। इसकी कथा दशानन रावण से जुड़ी है। एक बार दशानन रावण ने, हिमालय पर जाकर। भगवान शिव जी के दर्शन प्राप्त करने के लिए, घोर तपस्या की। तब भगवान शिव अति प्रसन्न और संतुष्ट होकर, उनके समक्ष प्रकट हो गए। फिर अत्यंत प्रसन्न होकर, उनसे वर मांगने को कहा।
दशानन रावण ने वर के रूप में, भगवान शिव जी से, उन शिवलिंग को अपनी राजधानी लंका ले जाने की अनुमति मांगी। भगवान शिव जी ने उन्हें यह वरदान तो दे दिया। दशानन रावण उस शिवलिंग को उठाकर, लंका के लिए चल पड़े। चलते चलते मार्ग में, उन्हें लघुशंका करने की आवश्यकता लगी। उन्होंने उस शिवलिंग को, एक अहिर के हाथ में थमा दिया।
फिर रावण लघुशंका के लिए चल पड़े। उस अहीर को शिवलिग का भार बहुत अधिक लगा। तो वे उसे संभाल न सके। विवश होकर, उन्होंने शिवलिग को वहीं भूमि पर रख दिया। दशानन रावण जब लौट कर आए। तब बहुत प्रयत्न करने के बाद भी, उस शिवलिंग को उठा नहीं पाए। अंत में थककर, उस पवित्र शिवलिंग पर, अपने अंगूठे का निशान बना दिया।
अंततः उसे वहीं छोड़कर, लंका लौट गए। यही ज्योतिर्लिंग श्री बैजनाथ के नाम से आज जाना जाता है।
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श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
भगवान शिव जी का यह ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत के द्वारकापुरी से, लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है। धर्म शास्त्रों में, भगवान शिव जी नागों के देवता है। नागेश्वर का पूर्ण अर्थ, नागों का ईश्वर है। भगवान शिव जी का एक अन्य नाम नागेश्वर भी है। इसकी कथा इस प्रकार है। सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था।
वह भगवान शिव का अनन्य भक्त था। उनकी इस शिव भक्ति से, दारूक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्ध रहता था। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर, कहीं जा रहा था। उस दुष्ट राक्षस दारूक ने यह उपयुक्त अवसर देखा। उसने उस नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार, सभी यात्रियों को पकड़कर, अपनी राजधानी में कैद कर लिया।
सुप्रिय कारागार में भी अपने नियम के अनुसार, भगवान शिव जी की पूजा आराधना करने लगा। उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया। सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुए। वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए, भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे।
उनकी प्रार्थना सुनकर, भगवान शंकर जी उस कारागार में, एक चमकते हुए सिंहासन पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए। उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय जी को दर्शन देकर, अपना पशुपति अस्त्र भी प्रदान किया। इस अस्त्र से राक्षस दारूक का वध करके। सुप्रिय शिवधाम को चले गए। भगवान शिव जी के आदेशानुसार ही, इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा। इसी प्रकार जाने : भगवान श्रीकृष्ण के जीवित ह्रदय का रहस्य।
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श्री रामेश्वर ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम नामक स्थान पर स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र जी ने की थी। इसीलिए इस ज्योतिर्लिंग को, भगवान श्री राम जी का नाम रामेश्वर दिया गया है। जब भगवान श्री रामचंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने के लिए जा रहे थे। तब उन्होंने इसी स्थान पर, समुद्र की बालू से शिवलिंग बनाकर, उसका पूजन किया था।
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श्री घृश्नेश्वर ज्योतिर्लिंग व इसका महत्व
द्वादश ज्योतिर्लिंग में, यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। यह घुश्मेश्वर या ख़ुश्मेश्वर के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह महाराष्ट्र में संभाजीनगर के दौलताबाद के पास स्थित है। इसकी कथा इस प्रकार है। दक्षिण देश में देवगिरी पर्वत के निकट, सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी व तपोनिष्ठ ब्राह्मण रहता था।
उनकी पत्नी का नाम सुदेहा था। उन दोनों में परस्पर, बहुत प्रेम था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। उन्होंने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से, दूसरा विवाह करने का आग्रह किया। सुधर्मा अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर, अपने घर ले आए। घुश्मा एक सदाचारणी स्त्री थी। वह भगवान शिव जी की अनन्य भक्त थी।
वह प्रतिदिन 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर। सच्ची निष्ठा के साथ, उनका पूजन करती थी। भगवान शिव जी की कृपा से, उसे एक अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म दिया। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। अब तक सुदेहा के मन का, कुविचार रूपी अंकुर, एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। अंततः उसने एक दिन, घुश्मा के पुत्र को रात में सोते समय मार डाला।
उसके शव को ले जाकर, उसने उसी तालाब में फेंक दिया। जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगो का विसर्जन करती थी। सुबह होते ही, सबको इस बात का पता लगा। लेकिन घुश्मा नित्य की भांति, भगवान शिव जी की आराधना में तल्लीन रही। पूजा समाप्त करने के बाद, वह पार्थ शिवलिंग को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी।
जब वह तालाब से लौटने लगी। उसी समय, उसका पुत्र तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखाई पड़ा। उसी समय भगवान शिव जी ने भी, वहां प्रकट होकर वर मांगने को कहा। घुश्मा ने हाथ जोड़कर, भगवान शिव जी से कहा। यदि आप मुझ पर प्रसन्न है। तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें।
आप की दया से, मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। आप लोक कल्याण के लिए, इसी स्थान पर हमेशा के लिए निवास करें। भगवान शिव जी ने, उसकी यह दोनों बातें स्वीकार कर ली। भक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण, वे यहां घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। इस प्रकार द्वादश ज्योतिर्लिंगों की कथा संपूर्ण होती है।
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