सनातन धर्म | सनातन धर्म कितना पुराना है | सनातन का अर्थ | सनातनी का अर्थ

सनातन धर्म – क्या है, इसका अर्थ, नियम, सनातन धर्म कितना पुराना है, सनातन संस्कृति, सनातन और हिन्दू धर्म में अंतर, धर्म के संस्थापक।

बहुत से लोग हिंदू धर्म को, सनातन धर्म से  अलग मानते हैं। वे कहते हैं कि हिंदू नाम तो विदेशियों ने दिया। पहले इसका नाम सनातन धर्म ही था। फिर कुछ कहते हैं कि नहीं। पहले इसका नाम आर्य धर्म था। कुछ कहते हैं कि इसका नाम वैदिक धर्म था। हालांकि इस संबंध में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं।

सनातन धर्म जिसे हिंदू धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहा जाता है। इसका लगभग 1,96,58,83,110 वर्ष का इतिहास है। सनातन धर्म को, हमारे हिंदू धर्म के वैकल्पिक नाम से भी जाना जाता है। सनातन का अर्थ है। सारस्वत या हमेशा बना रहने वाला अर्थात जिसका न आदि है। और न अंत।

सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है। जो किसी समय, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए, भारी धर्मांतरण के बाद भी, विश्व के इस क्षेत्र की  बहुसंख्यक आबादी। इसी धर्म में आस्था रखती है। मूल सनातन धर्म का प्रतीक चिन्ह ॐ ही नहीं। बल्कि यह सनातन परंपरा का सबसे पवित्र शब्द है।

ऋग्वेद के अनुसार, समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं। तथा वृद्धि की है। हे मनुष्यों आप अपने उत्पन्न होने की आधार रूपा, अपनी मां को नष्ट न करें। इसी प्रकार जाने : भगवान शिव जी से जुड़े रहस्य। Mysterious Facts of Lord Shiva।

सनातन धर्म

सनातन का अर्थ

हम इसकी परिभाषा अक्सर यह कह कर देते हैं। जो पुरातन है, सनातन है। बस वही सनातन हो गया। यह पुराना है। यह तो सत्य है। लेकिन इसके साथ, यह भी एक विकृत भाव आ जाएगा। जो पुराना है, अर्थात वो कभी नया रहा होगा। जो कभी नया था। वह कभी बना भी होगा। उसकी शुरुआत भी होगी।

एक समय आने पर, वह पुराना समाप्त भी हो जाएगा। तो क्या सनातन धर्म भी समाप्त हो जाएगा। अगर हम कहें कि जो पुरातन हैं, वही सनातन है। लेकिन सनातन का अर्थ पुराना नहीं है। गीता में दूसरे अध्याय के, 24वें श्लोक में, बड़ा स्पष्ट उत्तर दिया गया है। श्री कृष्ण कहते हैं-

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन: । ।

अर्थात हे अर्जुन! जो छेदा नहीं जाता। जलाया नहीं जाता। जो सूखता नहीं। जो गीला नहीं होता। जो स्थान नहीं बदलता। वो कौन है। ऐसे रहस्यमय व सात्विक गुण तो केवल परमात्मा में ही होते हैं। जो सत्ता इन दैवीय गुणों से परिपूर्ण हो। वही सनातन कहलाने के योग्य है।

अर्थात ईश्वर ही सनातन है। जो न तो कभी नया रहा। न ही कभी पुराना होगा। न ही इसकी शुरुआत है। न ही इसका अंत है। अर्थात ईश्वर को ही सनातन कहा गया है। हम अपने अस्तित्व की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि हम सनातनी हैं। सनातन धर्म के अनुयाई हैं। हम सनातनी तब बनेंगे। जब ऐसे दैवी गुण, हमारे अंदर भी आ जाएं। इसी प्रकार जाने : जानिए चारों वेदों मे क्या हैचारों वेदों का रहस्य। 

सनातनी कैसे बनें

हमारे अंदर ऐसे दैवी गुणों का अभाव है। तो अभी हम सनातनी नहीं है। तो फिर हम सनातनी कैसे बने। कबीर दास जी एक जगह अपने भाव को प्रकट करते हुए कहते हैं।

अब मन उलटि सनातन मूवा, तब हम जानों जीवन मूवा।

अर्थात ध्यान की उच्चतम अवस्था में, हम ईश्वर से एकाकार हो जाते हैं। उसी में विलय होकर, उसी का रूप हो जाते हैं। उस अवस्था को सनातन कहा गया है। यह अवस्था तब आती है। जब हमारी दिव्य दृष्टि खुलती है। कोई संत महापुरुष, हमारे दिव्य नेत्रों को खोलकर। बाहर भटक रहे, हमारे चंचल मन को, हमारे अंदर प्रवेश करवाते हैं।

जब हम इस अवस्था को महसूस करते हैं। तो इस अवस्था को कहा गया है कि अब आप सनातन हो चुके हो। हमारा मन अंदर की ओर उलट गया। हम ईश्वर से मिल गए। उसमें एकाकार हो गए। इस अवस्था को सनातन कहा गया है।

अतः हम केवल कोरे भाषणों से अथवा कोरे वाक्यों से, सनातनी न बने। बल्कि गीता व शास्त्रों के आधार पर, हम सनातनी बने। फिर देखिए, हमारा जीवन ही कुछ अलग होगा। उसका आनंद ही कुछ अलग होगा। इसी प्रकार जाने : सनातन परंपराओं के पीछे का वैज्ञानिक कारण। Science Behind Sanatan Rituals,Tradition and Culture।

सनातन और हिन्दू धर्म में अंतर

 बचपन से ही हम सुनते आ रहे हैं कि हमारा धर्म हिंदू है। जो लोग यह मानते हैं कि उनका धर्म हिंदू है। उन्हें यह जानकर बहुत हैरानी होगी कि दुनिया भर में हिंदू नाम का कोई धर्म है, ही नहीं। तो अगर हिंदू कोई धर्म है, ही नहीं। तो हिंदू क्या है। क्या हिंदू एक अंधविश्वास है। क्या हिंदू एक अलग धर्म है। क्या हिंदू सनातन धर्म का ही एक और नाम है। तो इसे जानने की कोशिश करते हैं।

 शायद आपको पता हो कि 5000 साल पहले कुछ सैलानी भारत आए थे। उस समय भारत का क्षेत्र बहुत विस्तृत था। अगर आप मानचित्र में देखें। तो ऊपर की तरफ, एक पर्वत श्रंखला है। जिसका नाम हिंदूकुश पर्वत है। जैसे हिमालय पर्वत है। वैसे ही हिंदू कुश पर्वत भी है। तो जब सैलानी भारत आए।

तो उनके लिए या तो  हिंदूकुश पर्वत के आगे लोग थे। या उसके पीछे लोग थे। जैसा कि आपको पता है। भारत में प्राचीन समय से विभिन्नता रही है। मतलब भारत में अलग-अलग तरह के धर्म रहे हैं। तब उन सैलानियों को, अलग-अलग धर्म का नाम देने से अच्छा लगा। कि वह उन सबको एक नाम दे दें।

तब उन्होंने कहा कि हिंदू कुश पर्वत के आगे जितने भी लोग हैं। उन सबको हिंदू कहा जाए। तो हिंदू कोई धर्म नहीं है। न हीं हिंदू, कोई सनातन धर्म का दूसरा नाम है। न हीं हिंदू कोई अंधविश्वास है। बल्कि हिंदू एक समाज है। तो जो लोग अपने आपको हिंदू मानते हैं। उन सब का धर्म सनातन ही है। इसी प्रकार जाने : Importance and Benefits of Havan Rituals in Sanatanहवन का महत्व व फायदे।

सनातन धर्म – मूल तत्व

सनातन धर्म के मूल तत्व इस प्रकार हैं- सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम, नियम आदि है। इन सब का सारस्वत महत्व है। सनातन धर्म में मुख्य रूप से चार वेद हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

ऋग को धर्म, यजु को मोक्ष, साम को काम तथा अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्हीं के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना की गई। वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है। क्योंकि यही एकमात्र धर्म है। जो ईश्वर आत्मा और मोक्ष को, तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है।

मोक्ष की अवधारणा इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित, यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग हैं। अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है।

यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग निश्चित होता है। जन्म और मृत्यु मिथ्या है। जगत ब्रह्मपूर्ण है। ब्रह्मा और मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष से ही ब्रह्मा, हुआ जा सकता है। इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को पूर्ण करने का कोई उपाय नहीं।

 ब्रह्मा के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्मा को जानकर, ब्रह्ममय में हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं।

असतो मा सद्गमय।

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मामृतं गमय ॥

इसका भावार्थ है कि जो लोग उस परम तत्व, परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं। वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से मृत्यु काल में, अनंत अंधकार में पड़ते हैं। उनके जीवन की गाथा, भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वह कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं  होते। मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के, सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है।

अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद, प्रलय काल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है। सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले। अलग-अलग काल में, अनेक ऋषि हुए हैं। उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है। अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा। इसीलिए सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है।

जो उक्त ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते। वही उसमें भेद करते हैं। भेद भाषाओं में होता है। अनुवादको में होता है। संस्कृतियों में होता है। परंपराओं में होता है। सिद्धांतों में होता है। लेकिन सत्य में नहीं। इसी प्रकार जाने : Sanatan Dharm me Vivah Ke Prakar। हिंदू विवाह के 8 प्रकार व उद्देश्य।

हिन्दू धर्म के अनुसार पुराणों की संख्या

हिंदू धर्म के अनुसार, पुराणों की कुल संख्या 18 बताई गई है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वर्णन किया गया है। त्रिदेव में प्रत्येक को 6 – 6 पुराण समर्पित किए गए है। इनका संकलन महर्षि वेदव्यास जी ने देव वाणी संस्कृत में किया है। सभी पुराणों के नाम इस प्रकार हैं-

पुराणों के नाम
ब्रह्म पुराणमार्कंडेय पुराणस्कंद पुराण
पद्म पुराणअग्नि पुराणवामन पुराण
विष्णु पुराणभविष्य पुराणकुर्मा पुराण
वायु पुराणब्रह्मवैवर्त पुराणमत्स्य पुराण
भागवत पुराणलिंग पुराणगरुण पुराण
नारद पुराणवाराह पुराणब्रह्मांड पुराण

वेद कहते हैं कि ईश्वर अजन्मा है। उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं। उसने कभी जन्म नहीं लिया। वह कभी जन्म नहीं लेगा। ईश्वर तो एक ही है। लेकिन देवी-देवता और भगवान अनेक हैं। लेकिन उस एक को छोड़कर, उक्त अनेक के आधार पर नियम, पूजा, तीर्थ आदि कर्मकांड को सनातन धर्म का अंग नहीं माना जाता। यही सनातन सत्य है।

।।सत्यम धर्म सनातनम ।।

सनातन धर्म का मूल सत्य नासा कर्मणा वाचा के सिद्धांत के अनुसार, मनुष्य के मन, वाणी तथा शरीर द्वारा एक जैसे कर्म होने चाहिए। ऐसा हमारे धर्मशास्त्र कहते हैं। मन में कुछ हो, वाणी कुछ कहे और कर्म सर्वथा इनसे भिन्न हो। इसे ही मिथ्या आचरण कहा गया है।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।

श्री गीता जी में लिखा है कि मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर, उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता है। वह मिथ्याचारी अर्थात घमंडी कहा जाता है।

कैकई ने दशरथ से भगवान श्री राम के वनवास जाने का वर मांगा। वचन से बंध  जाने के कारण, भगवान श्री राम ने अपने पिता के वचन धर्म की रक्षा करने हेतु, वन गमन स्वीकार किया।

रघुकुल रीति सदा चली आई।

प्राण जाए पर वचन न जाई ।।

हमारे धर्म शास्त्रों में, वचन धर्म को अत्यधिक महत्व दिया गया है। इसी में धर्म का मर्म एवं शास्त्र मर्यादा के पालन का रहस्य छिपा हुआ है। जब स्वयंबर में अर्जुन ने द्रोपदी को प्राप्त किया। वे सब भाइयों सहित, जब अपनी माता कुंती के पास पहुंचे। तब भूलवश कुंती के मुख से, यह निकल गया। कि तुम उपहार स्वरूप जो कुछ भी लाए हो। उसे आपस में बांट लो।

वास्तव में, यह पूर्व जन्म में भगवान शिव द्वारा द्रोपदी को दिए गए वर का परिणाम था। द्रोपदी ने भगवान शिव से सर्वगुण संपन्न पति के लिए, पांच बार प्रार्थना की थी। तब भगवान शिव के वरदान के प्रभाव से, उसे पांच पति प्राप्त हुए। इसी प्रकार जाने : Jagannath Puri Temple Facts। श्रीकृष्ण के हृदय का अनसुलझा रहस्य

पांडव सदैव कर्तव्य धर्म का पालन करते थे। उन्होंने अपनी माता के वचन धर्म की रक्षा की। मनुष्य का यह स्वभाव रहा है। वह परिस्थितियों को, अपने प्रतिकूल देखकर। अपने ही वचनों से मुंह फेर लेता है। लेकिन जो धर्मपरायण मनुष्य होते हैं। वे मन, वाणी और शरीर द्वारा एक जैसे होते हैं।

सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को केवल एक  स्वप्न आया। कि उन्होंने अपना राजपाट महर्षि विश्वामित्र को दान दे दिया है। सुबह होते ही, उन्होंने अपना संपूर्ण राज्य ऋषि विश्वामित्र को दे दिया। अपने वचनों से मुंह मोड़ लेने पर, न केवल मनुष्य की गरिमा एवं प्रतिष्ठा कम होती है। बल्कि उसकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है।

उपरोक्त प्रसंगों पर उतर पाना, आधुनिक समय में किसी के लिए भी संभव नहीं है। लेकिन मनुष्य को इतना प्रयास अवश्य करना चाहिए। कि वह अपने वचनों की मर्यादा का मान रखे। जैसे कि भीष्म पितामह ने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत रखा। वह अपने इस व्रत पर अटल रहे। वचन धर्म पालन और उसकी रक्षा के अनेकों वृतांत  हमारे धर्म ग्रंथों में हैं।

शरणागत की रक्षा हेतु वचन इत्यादि दृष्टांत प्राप्त होते हैं। भगवान श्री कृष्ण द्वारा महाभारत के युद्ध में, शस्त्र न उठाने का वचन। समाज हित के प्रति संवेदनशीलता तथा जगत के हित को दिखाता है। ऐसा व्रत जिसमें समस्त प्राणी मात्र का कल्याण निहित हो। ऐसा वचन जिसमें किसी का अहित न हो। निश्चित रूप से सारस्वत धर्म बन जाता है। ‘सत्य धर्म सनातन’ सनातन धर्म का मूल ही सत्य है।

हम जो कुछ भी मन के द्वारा जनकल्याण के विषय में सोचते हैं। वाणी के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति करते हैं। कर्म के द्वारा क्रियान्वित करते हैं। इसके द्वारा शास्त्र का सिद्धांत ‘मनसा वाचा कर्मणा’ अवश्य ही चरितार्थ होता है। अगर हम वाणी के द्वारा दिखावे के तौर पर, समाज में स्वार्थ भाव के कर्म करते हैं। तो वह केवल नश्वर फल प्रदान करते हैं। जीव ‘मनसा वाचा कर्मणा’ के सारस्वत फल से वंचित रह जाता है।

FAQ :

प्र० सनातन का अर्थ क्या है?

उ० सनातन का अर्थ है। सारस्वत या हमेशा बना रहने वाला अर्थात जिसका न आदि है। और न अंत।

प्र० सनातन धर्म की उत्पत्ति कैसे हुई?

उ० ईश्वर ही सनातन है। जो न तो कभी नया रहा। न ही कभी पुराना होगा। न ही इसकी शुरुआत है। न ही इसका अंत है। अर्थात ईश्वर को ही सनातन कहा गया है।

प्र० सनातन धर्म कितना पुराना है?

उ० सनातन धर्म जिसे हिंदू धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहा जाता है। इसका लगभग 1,96,58,83,110 वर्ष का इतिहास है।

 आपको इसे भी जानना चाहिए :

2 thoughts on “सनातन धर्म | सनातन धर्म कितना पुराना है | सनातन का अर्थ | सनातनी का अर्थ”

Leave a Comment