Srila Prabhupada Biography in Hindi | इस्कॉन मंदिर के संस्थापक श्रील प्रभुपाद का जीवन परिचय

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श्रीमद भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।

यानी कई हजार मनुष्यों में से, कोई एक मुझे जान पाता है। आगे के श्लोक में भगवान कहते हैं।

ॐ बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥

 ऐसा महात्मा बिरला होता है। दुर्लभ होता है। जो मुझे वासुदेव श्री कृष्ण को सर्वस्य समझे। ऐसे ही एक महात्मा के विषय में आज आप जानेंगे।

भारतवर्ष करोड़ों वर्षों से, ऋषि-मुनियों की भूमि रहा है। इस भूमि को हजारों संतो ने अपने ज्ञान से सींचा है। इस वैदिक संस्कृति को, विश्व की सबसे बड़ी धरोहर माना जाता रहा है। लेकिन कालखंड में, अक्रांताओ के शासन के अंतर्गत। इस बहुमूल्य संस्कृति का पतन हुआ।

इसका बहुत बड़ा कारण, संतो के आचार-विचार का हनन। सामान्य लोगों में, धर्म के प्रति आस्था का कम होना है। 18वीं और 19वीं शताब्दी में, भारत के आध्यात्मिक पटल पर। बहुत सारी महान आत्माओं को, उभारते और चमकते देखा। यह केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में चल रहा था।

उसी समय कई दर्शनशास्त्री, गुरु, स्वामी इत्यादि उभरे। जिन्हें लोगों ने पसंद किया और उनका अनुगमन किया। कोई समाज मे बढ़ रही। सामाजिक कुरीतियों को सुधारने में लगा था। तो कोई दीन-दुखियों की सेवा को, आध्यात्मिकता से जोड़कर प्रस्तुत कर रहा था। तो कोई वेदों के कुछ भाग को, तर्क-वितर्क द्वारा समझाने का प्रयास कर रहा था।

ऐसे समय में भगवान श्री कृष्ण के संदेश को यथारूप में। जन-जन तक पहुंचाने के लिए, संसार में एक ऐसे संत ने जन्म लिया। जिसने अपने जीवन के अंतिम चरण में, व्यक्तिगत आपदाओं को झेलते हुये। सनातन धर्म के ज्ञान को संपूर्ण विश्व में फैलाया।

भारत के कई संत विश्व में विख्यात हुए। लेकिन ए सी भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद ही एक मात्र ऐसे संत हुए हैं। जिन्होंने भक्ति को, आध्यात्मिकता को, सबके लिए सुलभ बनाया। आज उनकी ही बदौलत, विश्व का कोई ऐसा कोना नहीं। जहां भगवान श्री कृष्ण के भक्त न हो। जहां जगन्नाथ जी की रथ यात्रा न निकलती हो।

विश्व में चाहे अफ्रीका हो। एशिया हो या अमेरिका। यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, अरब देश हो या फिर रूस या जापान। घर-घर में माता-पिता से लेकर बच्चे भी कृष्ण भक्ति में लीन है। हरे कृष्ण महामंत्र का जप और कीर्तन कर रहे हैं। आइए उस महान आत्मा की जीवन यात्रा के बारे में। संक्षेप में समझने की कोशिश करते हैं। Alfred Ford Biography in Hindi फोर्ड कंपनी के मालिक ने क्यों अपनाया हिन्दू धर्म, बने कृष्ण भक्त।

Srila Prabhupada Biography in Hindi

Srila Prabhupada – An Introduction

एसी भक्तिवेदांत अभयस्वामी श्रील प्रभुपाद
एक नजर
पूरा नामचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद
अन्य नाम• अभय चरणारविंद 
• अभय चरण डे 
• श्रील महाप्रभु
• प्रभुपाद
जन्म-तिथि1 सितंबर 1896
जन्म-स्थानटॉलीगंज, कोलकाता, पश्चिम बंगाल
पितागौर मोहन डे
मातारजनी
व्यवसाय• गौरी वैष्णव गुरु 
• धर्म प्रचारक
• इस्कॉन के संस्थापक
प्रसिद्धिकृष्ण भक्त के रूप में
गुरुश्रील भक्ति सिद्धांत ठाकुर सरस्वती गोस्वामी
विवाहराधा रानी देवी (1918)
कर्मभूमिभारत व अमेरिका




योगदान
• इस्कॉन की स्थापना व प्रचार 
• श्रीमद्भगवद्गीता का यथारूप में हिंदी,
अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद
• वैष्णव धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन व संपादन
• संपूर्ण विश्व में 108 मंदिरों का निर्माण
निर्वाण तिथि14 नवंबर 1977
निर्वाण स्थानवृंदावन, उत्तर प्रदेश

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी का प्रारम्भिक जीवन
Early Life of Swami Srila Prabhupada

1 सितंबर 1896 को आदि गंगा के तट पर, मिट्टी की दीवारों से बना और खपरैल से ढका। एक छोटा-सा घर था। जन्माष्टमी के अगले दिन, घर के सभी सदस्य उत्सव की तैयारी कर रहे थे। तभी घर के अन्य कमरे से, किसी महिला के चिल्लाने की आवाज आई। घर की सभी महिलाएं, उस दिशा में दौड़ी।

कुछ समय बाद, उसी कमरे से नवजात शिशु के रोने की आवाज सुनाई दी। उसी क्षण अज्ञानता के अंधकार में डूबी मानवता को दिव्य ज्ञान का प्रकाश प्रदान करने वाले। महान सपूत का जन्म हुआ। पिता गौर मोहन डे और माता रजनी ने, उस बालक का नाम अभय चरण रखा। अर्थात जो भगवान श्री कृष्ण के चरणों का, आश्रय लेने के कारण निर्भय हो।

 जब अभय एक छोटे से बालक थे। तो उनके घर आए। एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की। अभय 70 वर्ष की आयु में समुद्र पार जाएगा। फिर संपूर्ण विश्व में 108 मंदिरों की स्थापना करेगा। हालांकि मां रजनी और पिता गौर मोहन डे के लिए, यह भविष्यवाणी किसी आश्चर्य से अधिक नहीं थी।

लेकिन आने वाला समय, इस भविष्यवाणी को चरितार्थ करने में लगा हुआ था। गौर मोहन कोलकाता में रहने वाले, कपड़े के व्यवसाई थे। लेकिन स्वभाव से वह भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। माता रजनी भी आज्ञाकारी, सुशील और पतिव्रता महिला थी। गौर मोहन और उनका परिवार, प्रतिदिन पास के राधा गोविंद देव मंदिर में जाता था।

अभय को भी शुरू से ही, राधा-गोविंद देव जी की विशेष कृपा प्राप्त हुई थी। गौर मोहन का सपना था कि उनका पुत्र बड़ा होकर, राधा रानी का शुद्ध भक्त बने। इसलिए उनके घर पर जब भी, साधु-संत आते। उनसे अभय के लिए, यही आशीर्वाद की याचना करते थे।

प्रतिवर्ष कोलकाता में निकलने वाली रथयात्रा को देखकर। 5 वर्ष के अभय के मन में भी रथयात्रा निकालने की इच्छा जाग्रत हुई। इस कार्य में उनके सहायक, उनके पिता बने। उन्होंने अपने आसपास के मित्रगणों के साथ, मिलकर लकड़ी के छोटे से रथ में, भगवान जगन्नाथ की यात्रा निकालना शुरू की। इसी प्रकार जाने : Bageshwar Dham – महाराज धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री का जीवन परिचयजानिए – धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की शक्तियों का रहस्य।

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी की शिक्षा
Education of Swami Srila Prabhupada

अत्यंत छोटी उम्र में ही, गौर मोहन ने अभय के लिए, एक मृदंग वादक को नियुक्त किया। जिसके परिणामस्वरूप अभय बचपन में ही मृदंग के विभिन्न ताल और कीर्तन करना सीख गए थे। वैष्णव परिवार में अभय का बचपन कृष्ण भक्ति से फलता फूलता रहा।

सन 1916 में जब संपूर्ण विश्व के लिए, बहुत परिवर्तन का समय था। प्रथम विश्व युद्ध अपनी चरम सीमा पर था। तब गौर मोहन डे अपने पुत्र को उच्च शिक्षा के लिए विदेश नहीं भेजना चाहते थे। तब 20 वर्ष की आयु में, अभय ने कोलकाता के विख्यात, स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज में अभय ने अंग्रेजी व संस्कृत के साथ, कई अन्य विषयों में शिक्षा ग्रहण की।

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी का विवाह व स्वतन्त्रता आंदोलन मे योगदान
Srila Prabhupada – Marriage and Contribution in Freedom Movement

अभय अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, महात्मा गांधी से प्रभावित हुए। गांधीजी उन दिनों अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई लड़ रहे थे। अभय का गांधीजी से प्रभावित होने का सिर्फ एक कारण था। क्योंकि गांधी जी  हमेशा अपने साथ भगवत गीता रखते थे।

इसी दौरान उन्होंने डॉ बोस की रसायनिक प्रयोगशाला में विभाग प्रबंधक के रूप में काम किया। सन 1918 में अभय का विवाह, राधारानी दत्त से हो गया। उन्होंने अपना गृहस्थ जीवन रास नहीं आया। वह गृहस्थ जीवन को पूर्ण रूप से अपना नहीं पाए। फिर वो महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से जुड़ गए। इसी प्रकार जाने : नीम करोली बाबा की कहानी नीम करोली बाबा के चमत्कार (पूर्ण जानकारी)।

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी को गुरु का सानिध्य
Srila Prabhupada – Attainment of Guru

यह उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव था। जो उनके जीवन की संपूर्ण दिशा को बदलने वाला था। जब सन 1922 में, अभय  दैव इच्छा से, शुद्ध वैष्णव आचार्य श्रील भक्त सिद्धांत सरस्वती ठाकुर जी से मिले। उनसे अभय असाधारण रूप से प्रभावित हुए। उन्होंने उनसे यह सीखा। कि बाहर के परिवर्तन से, भीतर का परिवर्तन कही ज्यादा मायने रखता है।

पहली मुलाकात में ही अभय को स्वामी जी के द्वारा, पाश्चात्य देशों में ‘हरे कृष्ण’ महामंत्र और संकीर्तन आंदोलन के प्रवर्तक श्री चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन के प्रचार का आदेश मिला। सन 1923 में वह अपने परिवार के साथ इलाहाबाद गए। जहां उन्होंने प्रयाग फार्मेसी की स्थापना करते हुए, व्यवसाय शुरू किया। 29 वर्ष की आयु में, अभय पहली बार भगवान श्रीकृष्ण के शश्वत निवास स्थल श्री वृंदावन धाम की यात्रा की।

सन 1928 में, उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के नाम प्रचार हेतु गौड़ीय मठ के इलाहाबाद केंद्र की स्थापना में सहायता की। सन 1932 में उन्हें श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर गोस्वामी महाराज जी से 36 वर्ष की आयु में दीक्षा प्राप्त हुई। उन्होंने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। इसके पश्चात अभय का नाम अभय चरणारविंद पड़ा। अब वह गौड़ीय वैष्णव गुरु परंपरा के अधिकृत शिक्षक बन गए थे।

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी को मिला गुरु से आदेश
Srila Prabhupada – Received Order From his Guru

    सन 1935 में, अभय चरणारविंद जी को श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर गोस्वामी महाराज जी द्वारा आदेश व निर्देश मिला। कि वह वैदिक सिद्धांत का प्रसार करने हेतु, पुस्तकों के प्रकाशन व मंदिरों की स्थापना करें। गुरु ने आदेश दिया था। यदि तुम्हें कभी धन मिले। तो उससे पुस्तके छपवाना। अभय ने अपने गुरु के वचनों को, अपने जीवन का आधार बना लिया।

      अभय अपने परिवारिक व व्यस्त दैनिक कार्य से, समय निकालकर। भगवत गीता और श्रीमद भगवतम का अनुवाद करते थे। उन्होंने सोचा कि जब उन्हें धन मिलेगा। तो वह इसे प्रकाशित करवाएंगे। परिवार में उनकी आध्यात्मिक अभिलाष को पूर्ण करने कोई रुचि नहीं थी। लेकिन अगर अपने गुरु के वचनों को पूरा करने के लिए, दृढ़ संकल्प थे।

      परिवार व अध्यात्म के संघर्ष के बीच, एक समय ऐसा भी आया। जब उन्हें जीवन का एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ा। एक दिन जब वह अपने व्यवसाय से वापस घर आए। तब उन्होंने देखा कि वे जिस भगवत गीता का अनुवाद कर रहे थे। वह हस्तलिखित पांडुलिपि उनकी मेज पर नहीं थी। इसकी जानकारी जब उन्होंने अपनी पत्नी से ली।

       तब उन्हें पता चला कि उसे उनकी पत्नी ने रद्दी वाले को दे दी। यह सुनकर अभय के पैरों तले, जमीन खिसक गई। फिर भी उन्होंने अपने पर नियंत्रण करते हुए पूछा। कि आखिर तुमने ऐसा क्यों किया। तो जवाब मिला कि उन्हें चाय और बिस्कुट खरीदने थे। अभय के लिए, यह स्वीकार करना मुश्किल था। कि कोई व्यक्ति कैसे सिर्फ एक नशे वाली चाय के लिए, भगवत गीता जैसे महान ग्रंथ की प्रतिलिपियों को बेच सकता है।

      अभय ने उन पांडुलिपियों को रात-रात, जागकर लिखा था। उनका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया था। इस वज्रपात को सहते हुए। आखिर उन्होंने अपनी पत्नी से, एक आखरी सवाल पूछा। तुम्हे चाय चाहिए या मैं। जिस पर उनकी पत्नी ने सहजतापूर्वक कहा- चाय। मैं उसके बगैर नहीं रह सकती। बस फिर क्या था। अभय चरणारविंद ने उसी दिन अपना घर त्याग दिया। अपना पूर्ण जीवन अपने गुरु के आदेश को पूर्ण करने व प्रचार कार्य में लग गए। इसी प्रकार जाने : Sadhguru Jaggi Vasudev Biography in Hindi। सद्गुरु की विरासत कौन संभालेगा।

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी को सन्यास की दीक्षा
Srila Prabhupada – Initiation of Sannyasa

इन सभी विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए। 17 सितंबर 1959 के दिन केशव जी गौडिय मठ के गुरूभाई केशव जी महाराज से सन्यास दीक्षा प्राप्त की। फिर उनका नाम पड़ा। अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी महाराज। इसके बाद संघर्ष और दृढ़ संकल्प की एक और यात्रा की शुरुआत हुई।

सन 1960 को उन्होंने अपनी प्रथम पुस्तक ‘अन्य लोकों की सुगम यात्रा’ का प्रकाशन किया। सन 1962 में, उन्होंने श्रीमद भागवतम पुराण का अन्य खंडों में, अंग्रेजी में अनुवाद और व्याख्या की। 1964 में श्रीमद्भागवत तम के प्रथम स्कंध के प्रथम भाग का प्रकाशन किया।

      सन 1965 में, जब 60 – 70 वर्ष की आयु में, हम सभी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर, जीवन के अंतिम पड़ाव पर होते हैं। उस समय 69 वर्ष की वृद्ध आयु में, श्रील प्रभुपाद ने, अपने गुरु द्वारा 10 वर्ष  पूर्व दिए गए। आदेश विदेशों में हरि नाम के प्रचार को, पूरा करने का दृढ़ संकल्प लिया।

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी का पाश्चात्य देश गमन
Srila Prabhupada – Visit to the Western Country

13 अगस्त सन 1965 को कोलकाता से, मात्र $7, कुछ पुस्तकें, एक छतरी, कुछ कपड़े और सुखी खाद्य सामग्री लेकर। श्रील प्रभुपाद जी सिंधिया नेविगेशन कंपनी के ‘जलदूत’ नामक एक मालवाहक जहाज पर सवार हुए। उन्होंने पाश्चात्य देश की कठिन समुद्री यात्रा की। पैसों के अभाव में, उन्होंने 37 दिन की इस मालवाहक जहाज में यात्रा की।

इसके पश्चात वह अमेरिका पहुंचे। कठिन यात्रा के बीच, उन्हें दो बार हार्ड अटैक, अपच व उल्टी का सामना करना पड़ा। लेकिन एक रात्रि के स्वप्न में, उन्हें भगवान विष्णु के सभी अवतार भीषण तूफ़ान में फंसी नौका को, बारी-बारी से खेते दिखाई दिए। मानो यह स्वप्न नहीं, बल्कि ईश्वर से साक्षात वार्तालाप थी।

श्रील प्रभुपाद जी को अमेरिका में बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन उनकी करुणा और दया कुछ ऐसी थी। कि वह अमेरिका जाकर, कुछ समय बाद हिप्पियों के बीच में रहे। इन हिप्पियों का केवल एक ही नियम था। सारे नियमों को तोड़ना। वहां पर उनके बीच स्वामी जी ने कृष्ण भक्ति को वितरित करना शुरू किया।

सैकड़ों हजारों लोगों को, शुद्ध जीवन जीने के लिए और कृष्ण भक्ति करने के लिए प्रेरित किया। उनके मन को परिवर्तित किया। धीरे-धीरे समाज के कुछ गंभीर युवक व युवतियां भगवत गीता का प्रवचन सुनने के लिए आने लगे। स्वामी जी ने उन्हें कृष्ण भक्ति का ज्ञान प्रदान किया। कुछ समय बाद, उनमें से कुछ भक्तों को दीक्षा प्रदान की। श्रील प्रभुपाद ने, अपने कुछ शिष्यों को, विश्व के विभिन्न कोनों में कृष्ण भावनामृत प्रचार करने को भेजा। इसी प्रकार जाने : पंडित श्रीराम शर्मा का जीवन परिचयएक युगप्रवर्तक व युगपुरुष, अखिल भारतीय गायत्री परिवार के संस्थापक।

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी द्वारा इस्कॉन की स्थापना
ISKCON was Founded By Srila Prabhupada

कृष्ण भक्ति के उद्देश्य को, विश्व स्तर पर सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिए। एक संगठन के आवश्यकता थी। जिस कारण, उन्होंने न्यूयॉर्क में सन 1966 में, International Society of Krishna Consciousness (ISKCON) की स्थापना की।

यह एक ऐसा संगठन है। जहां हर जाति धर्म के लोग भेदभाव से मुक्त होकर कृष्ण भक्ति करते है। अपने जीवन को सुखमय व आनन्दमय बना सकते है। श्रील प्रभुपाद जी के द्वारा सन 1968 में, सन फ्रांसिस्को में प्रथम जगन्नाथ रथ यात्रा का आयोजन किया गया। सन 1970 में श्रील प्रभुपाद जी ने इस्कॉन के कार्यों को सुव्यवस्थित रुप से संचालित करने के लिए। एक Governing Body Commission (GBC) की स्थापना की।

अगले 12 वर्षों के अंदर, श्रील प्रभुपाद जी ने 10000 से अधिक सदस्यों को दीक्षा प्रदान की। कृष्णभावना का प्रचार करने हेतु, 14 बार विश्व की यात्रा भी की। इतना ही नहीं। अपने बचपन की भविष्यवाणी को सार्थक करते हुए। उन्होंने संपूर्ण विश्व के अलग-अलग देशों में, 108 से अधिक मंदिरों की स्थापना की।

इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक गुरुकुल, विद्यालयों, गौशाला व कृषि क्षेत्रों की स्थापना की। 75 वर्ष की आयु में, अपने कुछ विदेशी शिष्यों के साथ वह भारत आए। यहां के लोग विदेशी शिष्यों को देखकर, बहुत आकर्षित हुए। उन्होंने उनके कार्यक्रमों में रुचि दिखाई। इस प्रकार भारत में इस्कॉन द्वारा कृष्ण भक्ति व हरि नाम का प्रचार आरंभ हुआ।

इसी वर्ष श्रील प्रभुपाद ने गुरुकुल विद्यालय की स्थापना की। उन्होंने पश्चिमी देशों में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का शुभारंभ किया। 1972 में, उन्होंने भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना की। जो भारतीय धर्म व दर्शन के क्षेत्र में, विश्व का सबसे बड़ा प्रकाशक है। इसी प्रकार जाने : बिरसा मुंडा इतिहास बिरसा मुंडा जयंती। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के जननायक।

स्वामी श्रील प्रभूपाद जी को मोक्ष की प्राप्ति
Swami Srila Prabhupada Attained Salvation

14 नवंबर सन 1977 को श्रील प्रभुपाद जी ने, कृष्ण बलराम मंदिर वृंदावन में, समाधि ले ली। उन्होंने 81 वर्ष की उम्र तक, अपने कुशल मार्ग निर्देशन के कारण। इस्कॉन संघ को, विश्व में 100 से अधिक मंदिर के रूप में, आश्रम, विद्यालयों का एक संगठन बना दिया था। उन्होंने पूरे विश्व में हजारों को शिष्य बनाया। करोड़ों को कृष्ण भक्ति के लिए प्रेरित किया।

 श्रील प्रभुपाद जी के अथक प्रयासों से, ‘हरे कृष्ण’ महामंत्र आज दुनिया के कोने कोने में गूंज रहा है। श्रील प्रभुपाद जी का सारा जीवन संघर्षमय रहा। उन्होंने जीवन निर्वाह हेतु, कई प्रकार के व्यवसाय आरंभ किए। जिसमे उन्हें बार-बार असफलता मिली। पहले तो उन्हें कृष्ण भक्ति के प्रचार में भी सफलता मिली।

लेकिन उन्होंने इन सब को भगवान की इच्छा मानकर स्वीकार किया। वे जीवन में आगे बढ़ते रहे। इस प्रकार हम देखते हैं कि उनका पूरा जीवन ही संघर्षमय रहा। लेकिन भगवान के प्रति पूर्ण आस्था और गुरु के आदेश के प्रति पूर्ण समर्पण, विश्वास और त्याग की भावना रही। जिसके कारण आज विश्व के कोने-कोने में इस्कॉन के भव्य मंदिर हैं।

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