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रानी लक्ष्मी बाई की कहानी
Rani Laxmi Bai Story
सिंहासन हिल उठे राजवंषों ने भृकुटी तनी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सब ने मन में ठनी थी.
चमक उठी सन सत्तावन में, यह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
एक ऐसी महिला, जिसकी वीरता के किस्से हम सदियों से सुनते आ रहे है। जिनकी कहानी सुनकर, आज भी हमें अपना बचपन याद आता हैं। एक ऐसी महिला, जिसने अपने दम पर, अच्छे-अच्छे योद्धाओं के दांत खट्टे कर दिए। एक ऐसी रानी, जो आज भी इतिहास का एक हिस्सा है। यह महिला प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अद्भुत वीरांगना लक्ष्मी बाई ही थी।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ। भारत की आजादी की लड़ाई में, अपना बहुमूल्य योगदान दिया था। एक महिला होते हुए भी, उन्होंने अपने पराक्रम से ब्रिटिश राज्य को ललकारा। अंततः उनसे लड़ते हुए। वह वीरगति को प्राप्त हुई। सन 1857 के भारतीय विद्रोह में, उन्होंने अभूतपूर्व साहस के साथ, ब्रिटिश राज्य का सामना किया।
रानी लक्ष्मी बाई के नाम से, अंग्रेज थर-थर काँपते थे। सन 1857 की क्रांति में, रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की जड़े हिला दी थी। युद्ध के दौरान सैकड़ों की संख्या में अंग्रेजी सेना, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को जिंदा नहीं पकड़ पाई थी। उनके साहस और पराक्रम के सामने, आज भी पूरा विश्व नतमस्तक है। तो जानते हैं इतिहास के पन्नों में, स्वर्ण अक्षरों में दर्ज। रानी लक्ष्मीबाई की हिम्मत, शौर्य और देश भक्ति की कहानी।

रानी लक्ष्मीबाई - एक परिचय
Rani Laxmi Bai - An Introduction
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एक परिचय | |
वास्तविक नाम | मणिकर्णिका तांबे |
उपनाम | मनु बाई |
अन्य नाम | • छबीली • रानी लक्ष्मीबाई नेवालकर (विवाह के पश्चात) |
जन्म-तिथि | 19 नवंबर 1828 |
जन्म-स्थान | वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत |
पिता | मोरोपंत तांबे |
माता | भागीरथी सापरे |
जाति | मराठा (ब्राह्मण) |
गृह-नगर | बिठूर, कानपुर, उत्तर प्रदेश |
कार्यक्षेत्र | • झांसी की रानी • स्वतंत्रता सेनानी |
प्रसिद्धि का कारण | झांसी की रानी होने के साथ, उन्होंने 1857 की क्रांति में ब्रिटिश राज्य की जड़ों को हिला दिया। |
गुरु | नाना साहेब (मुंह बोले भाई) तात्या टोपे |
पति | झांसी नरेश महाराज गंगाधर राव नेवालकर |
विवाह-तिथि | 19 मई 1842 |
बच्चे | दामोदर राव (दत्तक पुत्र) |
घोड़े का नाम | • बादल • सारंगी • पवन |
शौक व उपलब्धियां | • घुड़सवारी • तीरंदाजी • तलवार बाजी • शस्त्रों का ज्ञान • कुश्ती लड़ना |
मृत्यु-तिथि | 18 जून 1858 |
मृत्यु-स्थान | कोटा की सराय, ग्वालियर,भारत |
रानी लक्ष्मी बाई का बचपन
Rani Laxmi
Bai childhood
कानपुर के नाना की मुह बोली बहन छब्बिली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वो संतान अकेली थी,
नाना के सॅंग पढ़ती थी वो नाना के सॅंग खेली थी
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी.
वीर शिवाजी की गाथाएँ उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 में उत्तर प्रदेश के पवित्र स्थान वाराणसी के भदैनी हुआ था। यह एक मराठी ब्राह्मण परिवार में पिता मोरोपंत तांबे और माता भागीरथी भाई के घर जन्मी थी। इनके जन्म के समय, इनका नाम मणिकर्णिका तांबे रखा गया था। नाम बड़ा होने के कारण, उन्हें सभी मनु बाई पुकारते थे।
इनके पिता मोरोपंत तांबे बाजीराव के छोटे भाई चिमाजी अप्पा के एक सेवक थे। मनु अभी बोलना भी नहीं सीख पाई थी। कि उनके चुलबुलेपन, उन्हें सबका दुलारा बना दिया। जब मणिकर्णिका 4 वर्ष की थी। तभी उनकी माता भगीरथी जी का देहांत हो गया था। अब पिता मोरोपंत तांबे ही थे। जिन्हें मनु को माता और पिता दोनों बनकर पालना था।
बिन मां की बेटी का पालन-पोषण करना आसान नहीं था। लेकिन पिता मोरोपंत ने धैर्य नहीं खोया। ना ही उन्होंने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ा उन्होंने मनु को कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी उन्होंने बचपन से ही मनु के हुनर को पहचान लिया था। लक्ष्मीबाई के पिता बिठूर के एक न्यायालय में पेशवा थे।
वह लक्ष्मीबाई को बाजीराव के दरबार में ले गए। जहां उन्हें सबने प्यार से छबीली का नाम दिया था। यहीं पर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। वह बचपन से ही, लड़कियों की तुलना में अधिक स्वतंत्र थी। उन्हें बहुत ही कम उम्र में निशानेबाजी, तलवारबाजी और घुड़सवारी में रुचि थी।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वो स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना यह थे उसके प्रिय खिलवाड़.
महाराष्ट्रा-कुल-देवी उसकी भी आराध्या भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.
मनु के बचपन में नाना साहब उनके दोस्त थे। दोनों की उम्र में काफी फर्क था। नाना साहब मनु से लगभग 10 वर्ष बड़े थे। लेकिन उनकी दोस्ती के बीच उम्र का अंतर कभी नहीं आया। इन दोनों के साथ, तात्या टोपे भी थे। बचपन से ही यह तीनों एक साथ खेले और बड़े हुए। वे युद्ध की प्रतियोगिताओं में भी एक साथ भाग लेते थे।
रानी लक्ष्मीबाई का विवाह
Rani Laxmi Bai - Marriage
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ बन आई रानी लक्ष्मी बाई झाँसी में,
राजमहल में बाजी बधाई खुशियाँ छायी झाँसी में,
सुघत बुंडेलों की विरूदावली-सी वो आई झाँसी में.
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.
मणिकर्णिका यानी लक्ष्मीबाई का विवाह, झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से, 19 मई 1842 में हुआ था। उनके विवाह के बाद से ही, उन्हें रानी लक्ष्मी बाई के नाम से बुलाया जाता था। सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम दामोदर राव रखा गया था।
लेकिन कुछ कारणवश 4 महीने बाद ही, उसकी मृत्यु हो गई। ऐसा माना जाता है कि अपने पुत्र की मृत्यु के दुःख से महाराजा गंगाधर राव, कभी निकल ही नहीं पाए थे। नवंबर 1853 में, उन्होंने भी अपनी अंतिम सांस ली। अपनी मृत्यु से पूर्व महाराजा ने, रानी लक्ष्मीबाई से मिलकर। महाराजा के रिश्तेदार भाई के पुत्र, जिसका नाम आनंदराव था।
उसका नाम दामोदर राव रखकर, गोद लिया था। उस समय ब्रिटिश शासन को कोई आपत्ति न हो। इसके लिए, उन्होंने यह कार्य ब्रिटिश अफसरों की मौजूदगी में पूर्ण किया था। उस समय ब्रिटिश राज्य ने, एक नियम रखा था। जिसके मुताबिक, अगर किसी राजा की मृत्यु हो जाती है। उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं है। या उसने किसी को गोद लिया हो।
तब उसके पूरे राज्य पर ब्रिटिश सरकार यानी कि ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार होगा। फिर राजा के परिवार को, पेंशन के रूप में एक राशि दी जाएगी। महाराजा की मृत्यु के बाद, दत्तक पुत्र दामोदर राव को उत्तराधिकारी नहीं माना। उसके सिंहासन पर बैठने को खारिज कर दिया।
रानी लक्ष्मी बाई की प्रतिज्ञा
Rani Laxmi Bai - Pledge
बुझा दीप झाँसी का तब डॅल्लूसियी मान में हरसाया,
ऱाज्य हड़प करने का यह उसने अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौज भेज दुर्ग पर अपना झंडा फेहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज झाँसी आया.
अश्रुपुर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई वीरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को, जब इसके विषय में पता चला। तो वह रो पड़ी। उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि “मैं झांसी को नहीं दूंगी”। इसके बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने लंदन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मुकदमा दायर किया। लेकिन उनके मुकदमे को खारिज कर दिया गया।
इसके बाद उन्हें 6000 हजार रुपए महीने पेंशन दी गई। फिर राजमहल को छोड़कर, रानी महल में रहने का आदेश दिया गया। वैसे तो रानी लक्ष्मीबाई के हौसले बहुत बुलंद थे। वह ऐसी वीरांगना थी। जिन्हें युद्ध के वक्त का भी कोई डर नहीं था। योद्धाओं के सामने उनका जज्बा काबिले तारीफ था। रानी की धारदार तलवार, जब घूमती थी। तो एक नया इतिहास रचती थी।
रानी लक्ष्मीबाई घुड़सवारी में निपुण थी। उन्होंने महल के बीचो-बीच घुड़सवारी के लिए, एक खास जगह बनवाई थी। उन्हें घोड़े रखने का बेहद शौक था। वह अपनी वीरता के किस्से, अपने पसंदीदा घोड़े पर, हाथ में तलवार लिए दिखाया करती थी। उनके घोड़ों के नाम सारंगी, पवन और बादल थे।
रानी लक्ष्मीबाई - वीरता के किस्से
Rani Laxmi Bai - Unsung Saga
बुझा दीप झाँसी का तब डॅल्लूसियी मान में हरसाया,
ऱाज्य हड़प करने का यह उसने अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौज भेज दुर्ग पर अपना झंडा फेहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज झाँसी आया.
अश्रुपुर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई वीरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को, जब इसके विषय में पता चला। तो वह रो पड़ी। उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि “मैं झांसी को नहीं दूंगी”। इसके बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने लंदन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मुकदमा दायर किया। लेकिन उनके मुकदमे को खारिज कर दिया गया।
इसके बाद उन्हें 6000 हजार रुपए महीने पेंशन दी गई। फिर राजमहल को छोड़कर, रानी महल में रहने का आदेश दिया गया। वैसे तो रानी लक्ष्मीबाई के हौसले बहुत बुलंद थे। वह ऐसी वीरांगना थी। जिन्हें युद्ध के वक्त का भी कोई डर नहीं था। योद्धाओं के सामने उनका जज्बा काबिले तारीफ था। रानी की धारदार तलवार, जब घूमती थी। तो एक नया इतिहास रचती थी।
रानी लक्ष्मीबाई घुड़सवारी में निपुण थी। उन्होंने महल के बीचो-बीच घुड़सवारी के लिए, एक खास जगह बनवाई थी। उन्हें घोड़े रखने का बेहद शौक था। वह अपनी वीरता के किस्से, अपने पसंदीदा घोड़े पर, हाथ में तलवार लिए दिखाया करती थी। उनके घोड़ों के नाम सारंगी, पवन और बादल थे।
रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजो के बीच युद्ध
War between Rani Lakshmi Bai and the British
झांसी और कालपी के बीच कोच नामक स्थान पर, अंग्रेजों तथा राव साहब की सेनाओं के बीच में युद्ध हुआ। इसमें राव साहब की सेना को मुंह की खानी पड़ी। एक बार फिर, रानी लक्ष्मीबाई कालपी के किले में अंग्रेजों के बीच घिर गई। जैसे-तैसे वह ग्वालियर की ओर निकली। यहां आकर उन्होंने ग्वालियर के महाराजा और बांदा के नवाब से सहयोग मांगा।
लेकिन दोनों ने ही, इनकी मदद करने से इंकार कर दिया। जरनल ह्यूरोज़ लगातार रानी लक्ष्मीबाई का पीछा कर रहा था। वह अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने ग्वालियर के पूर्वी प्रवेश द्वार की ओर से आक्रमण किया था। जरनल ह्यूरोज़ के पास विशाल सेना थी। जबकि रानी लक्ष्मी बाई के पास, उनके मुट्ठी भर वफादार सैनिक थे। लेकिन फिर भी रानी लक्ष्मीबाई और उनके योद्धाओं ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया। युद्व के तीसरे दिन रानी लक्ष्मीबाई की सेना के पैर उखड़ गए। इतिहासकारों के अनुसार, 17 जून 1858 की शाम रानी लक्ष्मीबाई चारों तरफ से, अंग्रेजी फौज से घिर गई। लेकिन फिर भी वह मैदान में चारों तरफ, बिजली की तरह कौंधती दिखाई दे रही थी।
रानी लक्ष्मीबाई को वीरगति की प्राप्ति
Martyrdom of Rani Lakshmi Bai
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
एक अद्भुत वीरांगना घोड़े की रास मुँह दबाए आगे बढ़ी। वह अपने दोनों हाथों में तलवार से, अंग्रेज सेना को गाजर-मूली की तरह काट रही थी। इसी दौरान अचानक पीछे से, एक अंग्रेज ने उनके सर पर वार कर दिया। यह वार इतना जबरदस्त था। कि रानी लक्ष्मीबाई की एक आंख बाहर निकल आई।
लेकिन फिर भी यह मर्दानी पीछे मुड़ी। और उस अंग्रेज को मृत्यु के घाट उतार दिया। रानी ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया। लेकिन घोड़ा नाले के पास अड़ गया। फिर वह आगे नहीं जा सकी। उनके शरीर पर तीर और तलवारों से बहुत चोटे लगी। जिससे आहत होकर, वह जमीन पर गिर पड़ी।
रानी लक्ष्मीबाई पुरुषों की पोशाक पहने हुई थी। इसलिए अंग्रेज उन्हें पहचान नहीं पाए। वह रानी को युद्ध भूमि में ही छोड़ गए। रानी के सैनिक उन्हें पास के गंगादास मठ में ले गए। जहाँ उन्होंने रानी को गंगाजल दिया। इसके बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने अपनी अंतिम इच्छा बताते हुए कहा। कि कोई भी अंग्रेज उनके शरीर को हाथ नहीं लगाए।
इस तरह 17 जून 1858 को कोटा के सराय के पास, रानी लक्ष्मी बाई ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुई। साहसी वीरांगना लक्ष्मीबाई ने, हमेशा बहादुरी और हिम्मत से अपने शत्रुओं को पराजित कर, वीरता का परिचय दिया। देश को स्वतंत्रता दिलाने में, उन्होंने अपनी जान तक निछावर कर दी।
FAQ:
प्र० रानी लक्ष्मी बाई का जन्म कहां हुआ था?
उ० रानी लक्ष्मी बाई का जन्म, उत्तर प्रदेश के पवित्र स्थान वाराणसी के भदैनी हुआ था।
प्र० रानी लक्ष्मी बाई का जन्म कब हुआ था?
उ० रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 हुआ था।
प्र० रानी लक्ष्मी बाई के पति का क्या नाम था?
उ० रानी लक्ष्मी बाई के पति का नाम, झांसी नरेश महाराज गंगाधर राव नेवालकर था।
प्र० रानी लक्ष्मी बाई के घोड़े का नाम क्या था?
उ० रानी लक्ष्मी बाई के घोड़ों के नाम सारंगी, पवन और बादल थे।
प्र० रानी लक्ष्मी बाई की तलवार का वेट कितना था?
उ० रानी लक्ष्मी बाई की तलवार का वेट 35 किलो और लंबाई 4 फिट थी।
प्र० जब रानी लक्ष्मीबाई शहीद हुई तब उसकी उम्र क्या थी?
उ० जब रानी लक्ष्मीबाई शहीद हुई, तब उनकी उम्र 30 वर्ष थी?
प्र० रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु कहां हुई थी?
उ० कोटा के सराय के पास, रानी लक्ष्मी बाई ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुई थी।