महाराणा प्रताप का इतिहास | Maharana Pratap Jayanti (संपूर्ण वीरगाथा)

महाराणा प्रताप का इतिहास – पूरा नाम, जन्म कब हुआ, कितनी पत्नियां थी, मृत्यु कैसे हुई, किसने मारा, कहानी, जीवन परिचय, संपूर्ण वीरगाथा।

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महाराणा प्रताप का इतिहास (वीर गाथा)
Maharana Pratap History in Hindi

भारतीय इतिहास में राजपूतों का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। यहां के रणबांकुरे ने  देश, जाति, धर्म तथा स्वाधीनता की रक्षा के लिए। अपने प्राणों का बलिदान देने में, कभी संकोच नहीं किया। उनके त्याग पर संपूर्ण भारत को गर्व रहा है। वीरों की इस भूमि में, राजपूतों के छोटे-बड़े अनेक राज्य रहे। जिन्होंने भारत के स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया।

एक-एक करके भारत के सभी राजा, मुगल साम्राज्य के आगे घुटने टेक चुके थे। लेकिन भारत का एक राजा ऐसा भी था। जिसने मुगल सम्राट अकबर की नाक में दम कर रखा था। आपको जानकर हैरानी होगी।  मुगल सम्राट अकबर ने उस राजा से परेशान होकर। उसके सामने एक शर्त रखी।

तुम चाहो तो आधा भारत, अपने कब्जे में ले लो। लेकिन मुगल साम्राज्य के अधीन होकर राज्य करो। लेकिन भारत के इस महान राजा को, अपना आत्मसम्मान इतना प्यारा था। कि उसने अकबर के हर प्रस्ताव को ठुकराकर। युद्ध करना सही समझा।

एक ऐसा राजा जिसका नाम सुनकर, अकबर के भी रोंगटे खड़े हो जाते थे। एक ऐसा राजा जिसका नाम सुनते ही, अकबर के सारे योद्धा कांपने लगते थे। आज आप इन्हीं के बारे में जानेंगे जिसे जानना हर भारतीय के लिए जरूरी है। भारत के इस महान राजा का नाम वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप सिंह था।

भारत के राज्यों में मेवाड़ का अपना एक विशेष स्थान है। जिसमें इतिहास के गौरव बप्पा रावल, महाराणा हमीर सिंह, महाराणा कुंभा, महाराणा सांगा, उदय सिंह और वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने जन्म लिया है। मेवाड़ के महान राजपूत राजा महाराणा प्रताप अपने शौर्य और पराक्रम के लिए, पूरी दुनिया में मिसाल के तौर पर जाने जाते हैं।

 एक ऐसा राजपूत सम्राट, जिसने जंगलों में रहना पसंद किया। लेकिन कभी विदेशी मुगलों की दास्तां स्वीकार नहीं की। उन्होंने देश, धर्म और स्वाधीनता के लिए, सब कुछ निछावर कर दिया। इसी प्रकार जाने : स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय। नरेन्द्रनाथ दत्त से स्वामी विवेकानंद बनने तक का सफर।

महाराणा प्रताप का इतिहास

महाराणा प्रताप का इतिहास
एक परिचय

भारत के गौरव 
वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप
एक नजर
पूरा नाममहाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया
बचपन का नामकीका
जन्म-तिथि9 मई 1540
जन्म-स्थानकुंभलगढ़ दुर्ग, मेवाड़
(वर्तमान में राजसमंद, राजस्थान)
पितामहाराणा उदय सिंह
मातामहारानी जयवंता बाई
दादामहाराणा सांगा
परदादाबप्पा रावल
वंशसिसोदिया राजपूत
पत्नीमहारानी अजबदे पंवार( कुल 11 पत्नियाँ)
बच्चे• अमर सिंह प्रथम
• भगवान दास
• जगमाल 
• शक्ति सिंह 
• सागर सिंह(कुल 17 पुत्र व 5 पुत्रियाँ)
राज्याभिषेक1 मार्च 1572(गोगुन्दा में)
शासन-काल1 मार्च 1572 से 19 जनवरी 1597
उत्तराधिकारीमहारानी अजबदे के पुत्र अमर सिंह
महाराणा के शारीरिक आंकड़ेछाती  : 222 cm
लंबाई : 7’5″
वजन  : 110 Kg
महाराणा के अस्त्र-शस्त्र का वजनभाला  : 81 Kg
कवच  : 72 Kg
कुल वजन : 280 Kg
( महाराणा का अस्त्र-शस्त्र सहित वजन)
महाराणा का घोड़ाचेतक, युद्ध कला में प्रवीण
मृत्यु19 जनवरी 1597
मृत्यु स्थानचावण्ड, मेवाड़
( वर्तमान में चावंड, उदयपुर, राजस्थान)

अकबर की विस्तारवादी नीति
Akbar’s Expansionist Policy

15वी शताब्दी के आसपास, दिल्ली की सत्ता पर मुगलों का परचम बुलंद हो चुका था। इसकी बादशाहत पर, अकबर की हुकूमत थी। अकबर विस्तारवादी नीति का बादशाह था। शुरुआत से ही, अकबर ने आसपास की रियासतों को। मुगल सल्तनत के झंडे के नीचे लाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। पूर्व को जीतने के बाद, अकबर ने अपने पश्चिम अभियान में, राजपूताना की रियासतों पर, मुग़ल ध्वज फहराने की शपथ ली।

इसी के चलते आमेर रियासत ने, सबसे पहले अपनी पगड़ी उतार कर। अकबर की बादशाहत स्वीकार कर ली। शुरू में तो राजपूताने की दूसरी रियासतों ने, आमेर को धिक्कारना शुरू किया। लेकिन धीरे-धीरे उन सभी ने मुगलों की सत्ता स्वीकार कर ली। उस वक्त भी मेवाड़ अपने स्वाभिमान की चमक भी बिखेरते हुए। दुनिया के साथ खड़ा था।

इस समय मेवाड़ पर राणा उदय सिंह(1522-1572) का शासन हुआ करता था। जिन्होंने अपने पूर्वजों की भाँति, किसी की अधीनता स्वीकार नहीं की। इन्होंने अकबर को पत्र भिजवाया। हमारे राजा सिर्फ भगवान एकलिंग जी हैं। हम तो सिर्फ उनके ही दीवान हैं। अकबर लगातार दबाव बनाता रहा। इन्हीं परिस्थितियों में समय गुजरता रहा। इसी प्रकार जाने : Prithviraj Chauhan Biography in Hindiपृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेम कहानी व मृत्यु का पूरा सच।

महाराणा प्रताप का इतिहास
महाराणा प्रताप का जन्म कब हुआ

राणा उदय सिंह की सबसे बड़ी रानी, माता जयवंता बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। मजबूत बदन, बड़ी आंखें, मुस्कान बिखेरता  चेहरा बहुत मनमोहक लग रहा था। राणा उदय सिंह ने महल की औरतों से अपनी रानी के, हाल-चाल पूछे। तभी उनकी दसियों ने जवाब दिया। शेरनी ने शेर को जना है। राणा पुत्र पाकर बहुत खुश होने लगे। वे कभी राणा कुंभा के बनाए।

विजय स्तंभ को देखने दौड़ते। तो कभी बप्पा रावल की तलवार को प्रणाम करते। सरदारों ने पूछा, हुकुम कुंवर जी का नाम क्या  होगा। राणा शांत होकर बोले। जिस तरह सूरज अपनी चमक से, धरती को रोशन करता है। उसी तरह मेरा पुत्र, अपने शौर्य के प्रताप से, मेवाड़ को रोशन करेगा। अतः इसका नाम प्रताप होगा। कुंवर प्रताप सिंह सिसोदिया

महाराणा प्रताप का इतिहास
महाराणा प्रताप का बचपन व शिक्षा

माता जयवंता बाई, कृष्ण भक्त थी। उन्होंने शुरू से ही, कुंवर प्रताप को भगवान कृष्ण और महाभारत की युद्ध कलाओं का ज्ञान दिया। रानी जयवंता बाई, कुँवर को उनके दादा और परदादा की शौर्य कथाओं को बताती। सिसोदिया वंश के इस अतीत को सुनते हुए, प्रताप बड़े होने लगे। समय आने पर उन्हें गुरुकुल भेज दिया गया। जहां प्रताप सुबह के समय गुरुकुल में बिताते दोपहर के समय भी बस्तियों में जाते, शाम होते-होते प्रताप लोहारों के गांवों मैं निकल जाते हैं।

उनको हथियार बनाने की कला सीखने में बड़ा आनंद आता था। जनता के बीच इस कदर घुल-मिल जाने पर। प्रताप अब सबके चहेते बनते जा रहे थे। भीलो ने उन्हें कीका कहकर बुलाया। वही लोहारों ने उन्हें, अपना राणा मानना शुरू कर दिया। कुंवर प्रताप बचपन से ही वीर, स्वाभिमानी और हटी स्वभाव के थे। उनका शरीर सामान्य बच्चों से, कई गुना मजबूत था।

उन्होंने छोटी-सी उम्र में ही अफगानी बस्तियों में धावे बोलने शुरू कर दिए। मेवाड़ से होकर गुजरने वाली मुगल सेना पर, वे गुलेल से हमला करते थे। कुँवर के इन कारनामों को देख,  सबको लगने लगा था। बड़े होने पर वह महान पराक्रमी योद्धा बनेंगे। प्रताप ही भविष्य में मेवाड़ के राणा बनेंगे।

राणा उदयसिंह की मृत्यु कैसे हुई

उदय सिंह जी की कई रानियाँ भी थी। जिनसे कुल 33 संताने थी। लेकिन उदय सिंह सिंह जी की सबसे प्रिय रानी धीर बाईसा थी। इनकी बात को राणा उदय सिंह, अधिक महत्व देते थे। इन्हीं के कहने पर, इनके पुत्र जगमाल को मेवाड़ का भावी राणा घोषित कर दिया। शास्त्रों के अनुसार, सदैव बड़ा पुत्र ही राजा बनता है। लेकिन विशाल हृदय वाले कुंवर प्रताप ने पिता के इस आदेश को मानते हुए। छोटे भाई जगमाल को राजसत्ता देना स्वीकार कर लिया।

राज्य के सामंत, सरदार और जनता ने, इसका विरोध किया। वह कुंवर प्रताप को ही, अपना राणा मानते थे। समय के साथ राणा उदय सिंह का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। सन 1572 मैं उनका स्वर्गवास हो गया। उनके अंतिम संस्कार में, प्रताप सहित मेवाड़ का प्रत्येक व्यक्ति आया। लेकिन कुंवर जगमाल उस समय महल में राज्याभिषेक करवा रहा था। इसी प्रकार जाने : Bhagat Singh Biography – शहीद-ए-आजम भगत सिंह की अनसुनी Life Story।

महाराणा प्रताप का इतिहास
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक कब हुआ

ऐसी संकट की घड़ी में, जगमाल के अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल ना होने के कारण। सभी सरदारों ने गोगुंदा की पहाड़ियों पर, रक्त से मेवाड़ के असली हुक्म श्री कुंवर प्रताप का राज्य अभिषेक कर दिया। सरदार कृष्ण दास रावत चुंडावत ने, राणा प्रताप की कमर में तलवार बांधते हुए। ललकार लगाई, मेवाड़ मुकुट केसरी कुंवर प्रताप सिंह! आज से मेवाड़ के राणा है। यहीं से राणा प्रताप ने अपने सरदारों के साथ कुंभलगढ़ की तरफ कूच किया। राणा के आने की खबर सुनकर, छोटा भाई जगमाल राजगढ़ी छोड़कर। अकबर की शरण में भाग गया। इसके बाद साल 1573 को कुंभलगढ़ की राजगद्दी पर, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का विधिवत रूप से राज तिलक कर दिया गया।

महाराणा प्रताप का इतिहास
Maharana Pratap History

मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठने वाले महाराणा प्रताप। अपने एक ही वार में घोड़े सहित, दुश्मन को काट डालते थे। वह परम स्वाभिमानी शिवभक्त थे। जिनके नाम से ही दिल्ली की बादशाहत कांप जाया करती थी। उन्होंने जंगलों में रहना स्वीकार किया। लेकिन कभी भी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। 72 किलो का भाला, 81 किलो का छाती कवच और 208 किलो के भारी वजन के साथ। महाराणा युद्ध भूमि में निकलते। जिनके रौद्र रूप को देख, सामने वाला दुश्मन, अपना रास्ता पलट देता।

हल्दीघाटी के युद्ध में, विशाल मुगल सेना को जबरदस्त टक्कर दी। दिवेर के युद्ध में मुगल सेना को घुटनों पर ले आए। अपनी  छवामा युद्ध नीति के दम पर। मेवाड़ को फिर से आजाद करवा, केसरिया ध्वज लहरा दिया। मुगलों के 36 किलों को जीतकर, 40,000 मुगलों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया। जिनके भाले से शत्रु का रक्त कभी नही सूखा।जिनके तलवार ने, पराजय का मुंह कभी नहीं देखा। यह वीरगाथा, उस महाराणा की है।जिसके सामने आज भी, सभी भारतीय नतमस्तक हैं।

महाराणा प्रताप की कहानी
Maharana Pratap History in Hindi

 28 फरवरी 1572 को महाराणा प्रताप ने, मेवाड़ की राजगद्दी संभाली। इस समय मेवाड़ की स्थिति काफी खराब थी। उनके पिता उदय सिंह के समय हुए। युद्ध में सारा खजाना खाली हो चुका था। चित्तौड़ सहित मेवाड़ के बड़े भाग पर मुगलों का शासन था। अकबर मेवाड़ के बचे हुए, इलाके पर भी अपना कब्जा चाहता था। महाराणा प्रताप ने राज गद्दी संभालते ही अपने सभी सरदारों को बुलाया। उनसे कहा कि रघुकुल का मान सदा ऊंचा रहेगा।

मेवाड़ का भविष्य जरूर चमकेगा। मैं शपथ लेता हूं कि जब तक मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र नहीं करा लूंगा। तब तक मैं शांत नहीं बैठूंगा। रात महलों में नहीं रहूंगा। पलंग पर नहीं सोऊंगा। सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन नहीं करूंगा। मेरे वीरो! स्वाभिमान की दहाड़ से,अब हमारा टकराव, विशाल सेना से होगा। तैयार हो जाइए। सभी सरदारों ने प्रतिघात के स्वर में,अपनी तलवारे लहराई।

इसी के साथ महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को संगठित करना शुरू किया। भील योद्धाओं को अपने साथ जोड़ना शुरु किया। लोहारों को हथियारों के जखीरे, बनाने का काम सौंपा गया। सरदारों को, प्राचीन युद्ध कलाओं का अभ्यास करवाया जाने लगा। यह सारे समाचार अकबर तक पहुंचने लगे। अकबर ने भी राणा को रोकने की सभी तैयारियां शुरू कर दी।

उन्होंने महाराणा प्रताप से,अपनी अधीनता स्वीकार करवाने के लिए। अपने सबसे चतुर और वाकपटु अधिकारी, जलाल खान कोरची को भेजा। लेकिन महाराणा ने अधीनता की बात सुनते ही। उसे वापस लौटा दिया। इसी प्रकार जाने : रानी लक्ष्मी बाई की कहानीजानिए गौरवगाथा एक नए अंदाज़ में।

अकबर का दूत बनकर आया
राजा मानसिंह

इसके बाद आमेर के राजा मानसिंह को, अकबर ने महाराणा के पास भेजा। उस समय राणा उदयपुर में थे। मानसिंह सीधे उदयपुर आ गया। महाराणा ने मान सिंह का, एक अतिथि की तरह स्वागत किया। महाराणा प्रताप उदयसागर झील तक, मान सिंह का स्वागत करने के लिए पहुंचे। झील के सामने वाले टीले पर, मानसिंह की दावत की व्यवस्था की गई थी।

भोजन के लिए मानसिंह को बुलावा भेजा गया। उनके अतिथि सत्कार के लिए अपने बेटे अमर सिंह को लगा दिया। लेकिन खुद महाराणा नहीं आए। मानसिंह के पूछने पर बताया कि पिताजी के सर में दर्द है। वह नहीं आ पाएंगे। आप भोजन करके विश्राम कीजिए। मानसिंह ने भौवे तानते हुए कहा। कि राणा जी से कहो। मैं उनके सर दर्द का कारण जानता हूं।

मान सिंह ने राणा के बगैर भोजन स्वीकार करने से मना कर दिया। तब राणा प्रताप ने उन्हें संदेश भेजा। जिस राजपूत के संबंध एक तुर्क से हो। उसके साथ भला, कौन राजपूत भोजन करेगा। इस पर मानसिंह के पास कोई जवाब नहीं था। मानसिंह ने भोजन को छुआ तक नहीं। केवल चावल के कुछ कणों को, जो अन्य देवता को अर्पित किए थे। अपनी पगड़ी में रखकर चला गया।

घोड़े पर बैठकर मानसिंह ने राणा से कहा। दिल्ली के बादशाह हद को अस्वीकार करना। संघर्ष को चुनौती है। यदि आपकी इच्छा दुखों में रहने की है। तो एक दिन आपकी इच्छा जरूर पूरी होगी। मानसिंह ने आंखें तान कर कहा। मैं तुम्हारा अभिमान चूर्ण कर दूंगा। अगली मुलाकात, युद्ध भूमि में होगी। महाराणा ने कहा, मैं प्रतीक्षा करूंगा।

मानसिंह का मेवाड़ पर हमला

 महाराणा के अधीनता स्वीकार न करने पर। सन 1576 में अकबर अपने सभी सेनापतियों के साथ, अजमेर आ धमका। अकबर ने मानसिंह को एक लाख मुगल सेना का सेनापति घोषित किया। 3 अप्रैल 1576 को मानसिंह, विशाल मुगल सेना को लेकर मेवाड़ विजय के लिए निकल पड़ा।

दो महीने चलने के बाद, मानसिंह बनास नदी के मैदानों में आ पहुंचा। मानसिंह ने मोलेला गांव में अपना डेरा लगाया। दूसरी तरफ महाराणा हुकुम ने अपनी 20 हजार की सेना के साथ। उससे 6 मील सामने, लोसिंग गांव में अपना पड़ाव डाला। विशाल मुगल सेना में राजपूत और मुगल थे जबकि महाराणा की सेना में राजपूत, भील पठान और लोहारों के गांवों के लोग थे। इसी प्रकार जाने : Netaji Subhash Chandra Bose Motivational Biography in Hindi।

हल्दीघाटी का युद्ध
Battle of Haldighati

18 जून 1576 को संसार के अनोखे, हल्दीघाटी युद्ध का आगाज हुआ। मुगल सेना आगे बढ़ रही थी। तब महाराणा ने अपनी हरावल सेना को, प्रहार करने के लिए आगे भेजा। हुकुम की हरावल सेना ने, मुगलों के तीन हरावल दस्ते को नेस्तनाबूद कर दिया। इस घनघोर हमले से घबराकर। मुगल सेना का हरावल दस्ता, लूरकरण के नेतृत्व में। भेड़ों के झुंड की तरह भाग निकला। अब मेवाड़ और मुगल सेना आमने-सामने थी।

तभी हिंदू विराट शिरोमणि महाराणा प्रताप ने युद्ध भूमि में प्रवेश किया। राणा के युद्ध में आते ही मुग़ल खेमे में दहशत का माहौल फैल गया। महाराणा जिस ओर बढ़ जाते, वहां शत्रुओं की लाशों के ढेर लग जाते हैं। मुगलों ने पहली बार महाराणा प्रताप को देखा था। इसके पहले सिर्फ उनका नाम ही सुना था। अब्दुल कादिर बदायूनी ने अपनी किताब में लिखा था कि वह बहुत लंबे मजबूत और ताकतवर थे।

प्रताप हाथ में तलवार लेकर जब चलते थे। तो लगता था, मानव आदि सेना को अकेले ही ले डूबेंगे। उनके चेहरे पर सदैव गुस्से की लकीरें चमकती रहती थी। युद्ध भूमि में किसी मुगल सैनिक ने, उन्हें छोड़ने की कोशिश नहीं की। महाराणा प्रताप की सेना ने 3 घंटों में ही लाशों के ढेर लगा दिए। घबराई हुई, मुगल सेना अरवली की घाटी की तरफ भागने लगी। मुगलों को भागते देख। हरावल सेनापति मेहतर खान जोर-जोर से चिल्लाया।

बादशाह अकबर खुद, विशाल सेना लेकर युद्ध भूमि में आ रहे हैं। यह सुनकर मुगल सेना सोच में डूब गई। भागे तो अकबर मार देगा। लौटे तो, राणा मार डालेगा। महाराणा प्रताप युद्ध भूमि में, मानसिंह को ढूंढने निकले। जिसने कहा था कि अगली मुलाकात युद्ध भूमि में होगी। मानसिंह हाथी पर बैठा था। राणा ने बड़े वेग से, चेतक के अगले पैरों को, हाथी के मस्तक पर टिका दिया। अपने भाले से, मानसिंह पर करारा प्रहार किया। लेकिन मानसिंह अपने हाथी में लगे, हौज में छुप गया।

राणा के करारे प्रहार से, उनका महावत मारा गया। मानसिंह के हाथी की सूंड में एक तलवार लटकी थी। जिससे चेतक का अगला पैर कट गया। अब तक महाराणा प्रताप के पैर में गोली लगी थी। उनके शरीर पर असंख्य घाव थे। पूरा शरीर खून से लथपथ हो चुका था। तभी सादड़ी रियासत के झाला पिता ने कहा। हुकुम, आपके चेतक को इलाज की जरूरत है। आपके पैर में भी गोली लगी है। जिससे जहर फैल सकता है। आपको वैध के पास जाना चाहिए।

चेतक का बलिदान

 महाराणा प्रताप अपने घोड़े चेतक को, पुत्र की तरह प्यार करते थे। उन्होंने झाला पिता को मेवाड़ का राजछत्र दिया।उनसे कहा, सेना को पूरा नेतृत्व देना। उन्होने स्वयं चेतक पर सवार होकर, युद्ध को पूरी तरह से पहाड़ियों की ओर मोड़ लिया। यहां भीलो ने, युद्ध का मोर्चा संभाल लिया। मुगलों को अब, एक नई टक्कर मिली। महाराणा प्रताप चेतक को लेकर पर्वतों की ओर निकल पड़े।

यहां चेतक ने 26 फिट की गहरी खाई को कुदकर पार कर लिया। बलीचा गांव में चेतक घायल होकर नीचे गिरकर बेहोश हो गया। तभी मुगल सेना की ओर से लड़ रहा। राणा का छोटा भाई, उनका पीछा करते हुए। यहां तक आ पहुंचा। महाराणा प्रताप चेतक को सहला रहे थे। तभी उनकी नजर शक्तिसिंह पर पड़ी। उन्होंने शक्ति सिंह से कहा-

सीना खुल्या मार भाला, तुम गोद गुलामी टीकण लगे।

भारत मां ते कह दूंगा, तेरे पुत्त दामण में बिकन लगे।

शक्ति सिंह बड़े भाई के शब्दों को सुनकर फूटफूटकर रोने लगा। वह राणा के पैरों में जा गिरा। यही चेतक की मृत्यु हो गई। इधर हल्दीघाटी में भीषण युद्ध चल रहा था। घाटी के दर्रों में राणा की सेना, मुगलों को भीषण टक्कर दे रही थी।

अंत में मान सिंह ने हल्दीघाटी के दर्रों में जाने की बजाय, मुगल सेना को वापस अजमेर चलने का आदेश दिया। अकबर की विशाल सेना का गर्व, मेवाड़ी सेना ने चूर-चूर कर मिट्टी में मिला दिया। इसी प्रकार जाने :  Lal Bahadur Shastri Biography in Hindi शास्त्री जी के जीवन के अंतिम पल का सच।

कुंभलगढ़ पर शाहबाज खान का हमला

 हल्दीघाटी के भयानक युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप कुंभलगढ़ आ गए। इस विनाशकारी युद्ध का पासा, राणा के पक्ष में था। इस समय तक उनका खजाना खाली हो चुका था। हल्दीघाटी के 4 महीने बाद ही,फिर सन 1570 में एक बार। अकबर ने, शहबाज खान के नेतृत्व में,भारी सेना कुंभलगढ़ पर कब्जा करने के लिए भेजी।

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद, मेवाड़ की सेना के लिए युद्ध भारी था। इसलिए महाराणा प्रताप ने किले को त्याग दिया। कुंभलगढ़ पर शाहबाज खान का अधिकार हो गया। कुछ महीनों के बाद, महाराणा प्रताप ने फिर से सेना को पूरी तैयारी के साथ, शाहबाज खान पर आक्रमण करके। कुंभलगढ़ को वापस जीत लिया। कुंभलगढ़ विजय के बाद, राणा ने सभी सरदारों को बुलवाया।

महाराणा ने सिंध की तरफ, धन जुटाने व विशाल सेना को संगठित करने के लिए कूच किया। ताकि अकबर पर सीधे हमला किया जा सके। इसी रास्ते में, दो बार शाहबाज खान को पराजित करके, वापस लौटने पर मजबूर किया। गुजरात पहुंचने के बाद, राणा ने अपना डेरा  चुलिया का गांव में लगाया।

यहां परमवीर परम दानवीर भामाशाह ने अपना खजाना खोल दिया उन्होंने महाराणा प्रताप को 2500000 की सहायता दी इतनी बड़ी रकम पाकर राणा सेना की तैयारी में जुट गए महाराणा प्रताप ने चंदू जाने की बजाए मेवाड़ की तरफ रुख किया।

मेवाड़ के 32 किलों पुनः अधिपत्य

सन 1582 में राणा, दीवेर के दर्रों में मुगल सेना पर आंधी के समान टूट पड़े। राणा रूद्र रूप धारण कर चुके थे। उन्होंने अपने सामंतों को आदेश दिया। कि किले को चारों तरफ से घेर लें। कोई बचकर नहीं निकलना चाहिए। तभी राणा के पुत्र अमर सिंह ने, अकबर के चाचा सुल्तान खान पर भाला फेका। जो सुल्तान सहित घोड़े के आर-पार निकल गया। यहां 36000 मुगलों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। महाराणा ने दीवेर के किले पर केसरिया ध्वज लहरा दिया।

मुगलों के दिवेर हार से बौखलाए, अकबर ने सन 1584 में राणा को बंदी बनाने के लिए। जगन्नाथ कछवाहा को भेजा। वह भी पूरी तरह से पराजित हुआ। इसी के बाद, महाराणा ने कमल मीर के किले को जीत लिया। इन्हीं लगातार जीतों के बाद। 1585 में महाराणा प्रताप ने चावंड को जीतकर, उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद राणा ने एक-एक करके मुगलों के 32 किलों को जीतकर, अकबर की नींद हराम कर दी। इसी प्रकार जाने : गौतम बुद्ध का जीवन परिचयGautam Buddha Biography in Hindi।

मानसिंह से बदला

मानसिंह से उसके देशद्रोह का बदला लेने के लिए। अपनी सेना के साथ आमेर के मालपुरा पर आक्रमण किया। यहां उन्होंने मानसिंह की बेशुमार दौलत को अपने कब्जे में ले लिया। अकबर ने स्वीकार कर लिया था। राजपूताने के इस शेर को कोई क़ैद नहीं कर सकता। उसने महाराणा प्रताप को ना छोड़ने में ही, अपनी भलाई समझी।

महाराणा प्रताप का इतिहास
महाराणा प्रताप की मृत्यु कैसे हुई

 इसके बाद, 12 सालों तक महाराणा प्रताप ने, ऐसा शासन किया। मेवाड़ के व्यापार को चार चांद लग गए। मेवाड़ की खोई, चमक वापस लौटने लगी।19 जनवरी 1597 को 57 वर्ष की आयु में। राणा शेर के शिकार पर निकले थे। जहां धनुष की प्रत्यंचा खींचते हुए। हुकुम जी देव लोक सिधार गए। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की देशभक्ति और अमर स्वाभिमान ने। हर भारतीय के मन में, उनके लिए अपार सम्मान जागृत किया।

FAQ –

प्र० महाराणा प्रताप का जन्म कब हुआ?

उ० महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कुंभलगढ़ मेवाड़ में हुआ था।

प्र०  महाराणा प्रताप की तलवार कितने किलो की थी?

उ०  महाराणा प्रताप की दो तलवारें थी। जिनमे प्रत्येक का वजन 104 किलो था। इसके साथ 72 किलो का भाला, 81 किलो का छाती कवच और 208 किलो के भारी तलवारों के साथ, महाराणा युद्ध भूमि में निकलते थे।

प्र०   महाराणा प्रताप की मृत्यु कैसे हुई ?

उ०  19 जनवरी 1597 को 57 वर्ष की आयु में। राणा शेर के शिकार पर निकले थे। जहां धनुष की प्रत्यंचा खींचते हुए। हुकुम जी देव लोक सिधार गए।

प्र० महाराणा प्रताप की कितनी पत्नियां थी?

उ० महाराणा प्रताप की रानी का नाम अजबदे पुनवार था। इनकी एक पत्नी रानी फूलकवर भी थी।

प्र० हल्दीघाटी के युद्ध में कौन जीता था?

उ० इतिहास के सबसे चर्चित हल्दीघाटी के युद्ध को महाराणा प्रताप ने जीता था।

प्र० महाराणा प्रताप का पूरा नाम?

उ० महाराणा प्रताप का पूरा नाम महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया था।

प्र० महाराणा प्रताप की मृत्यु कब हुई?

उ०  19 जनवरी 1597 को 57 वर्ष की आयु में। राणा शेर के शिकार पर निकले थे। जहां धनुष की प्रत्यंचा खींचते हुए। हुकुम जी देव लोक सिधार गए।

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