रामभद्राचार्य जी का जीवन परिचय
Rambhadracharya ji ka Jivan Parichay
अब मोहि भा भरोस हनुमंता,
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में संतो की महिमा का वर्णन किया है। यह ईश कृपा ही है कि आज आप एक ऐसे संत के बारे में जानेंगे। जिन्हें रामचरितमानस, गीता, वेद, उपनिषद, वेदांत आदि को कंठस्थ कर, अपने मानस में समेटे हुए हैं। यह रामानंद संप्रदाय के चार प्रमुख जगतगुरुओं में से एक हैं।
यह एक ऐसे संत, एक ऐसे आध्यात्मिक गुरु हैं। जो जन्म से ही सूरदास है। यह एक ऐसे संत हैं, जिनके दर्शन मात्र से, आपको परमात्मा के दर्शन होते हैं। जिनके नाम में ही राम बसते हैं। इनके दर्शन मात्र से ही, सबका कल्याण होता है। इनके दर्शन मात्र से ही, आप अपने जहन में उठने वाले, तमाम प्रश्नों के उत्तर बड़ी सरलता से जान लेते हैं।
इनके दर्शन से ऐसा प्रतीत होता है। जैसे आप साक्षात मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के दर्शन कर रहे हो। यह एक हिंदू धर्म गुरु हैं। वे शिक्षक हैं, संस्कृत के विद्वान हैं, लेखक हैं, दार्शनिक है, संगीतकार है, गायक है, नाटककार है। यह धर्म चक्रवर्ती तुलसी पीठाधीश्वर, पदम विभूषण, जगतगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज है।
रामभद्राचार्य जी ने अपने असाधारण कार्यों से, समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। वह लोगों के लिए, संत के रूप में परमात्मा के ही अवतार हैं। यह एक ऐसे दिव्य इंसान हैं। जिनके नाम में ही प्रभु श्रीराम बसते हैं। वे एक ऐसी प्रभावशाली शख्सियत हैं। जिनका संपूर्ण जीवन मानव कल्याण को समर्पित रहा है।
जिनके दर्शनों के लिए, पीएम मोदी को भी लाइन में लगानी पड़ती है। वे अपनी दूरदृष्टि के बल पर, जब-जब भविष्यवाणियां करते हैं। तो दुनिया उन पर विश्वास करती है। एक ऐसी असाधारण शख्सियत है, जिन्हें 22 भाषाओं का ज्ञान है। जो 80 ग्रंथों की रचना कर चुके हैं। धर्म कार्य के अलावा, अपने दम पर विश्व का पहला विकलांग विश्वविद्यालय भी चला रहे हैं।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी – एक परिचय
जगतगुरु रामभद्राचार्य का प्रारंभिक जीवन
स्वामी रामभद्राचार्य जी का जन्म 14 जनवरी 1950 को, उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के सांडीखुर्द गांव में हुआ था। उनका जन्म मकर संक्रांति के दिन हुआ। इनका परिवार एक सरयूपारीण ब्राह्मण परिवार था। स्वामी जी के पिता का नाम पंडित राजदेव मिश्र और उनकी मां का नाम शची देवी मिश्र था। इनकी माता दी एक धार्मिक महिला थी।
रामभद्राचार्य के पिताजी की चचेरी बहन मीराबाई की अनन्य भक्त थी। मीराबाई अपने काव्यों में श्री कृष्ण को गिरधर से संबोधित किया करती थी। इसीलिए उन्होंने स्वामी रामभद्राचार्य जी का बचपन का नाम गिरधर रखा था। इनकी काकी इन्हें प्यार से गिरधर बुलाती थी। बचपन से ही इन्हें धार्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ।
दुनिया को देखने के लिए, जीवन जीने और अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए। नजर की नहीं, नजरिए की जरूरत होती है। स्वामी रामभद्राचार्य ने 2 महीने की उम्र में ही, अपने आंखों की रोशनी खो दी थी। 24 मार्च 1950 को, उनकी आंखें ट्रेकोमा से संक्रमित हो गई थी।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य की शिक्षा
गिरधर की प्रारंभिक शिक्षा, उनके दादाजी के द्वारा हुई। क्योंकि उनके पिता मुंबई में काम किया करते थे। दोपहर में उनके दादाजी, उन्हें हिंदू महाकाव्यों रामायण और महाभारत के विभिन्न प्रसंग सुनाते थे। 3 साल में ही, उन्होंने अपनी पहली कविता की रचना अवधी भाषा में की। उनकी यह कविता भगवान श्री कृष्ण से संबंधित थी। जिसे उन्होंने अपने दादाजी को सुनाई। उनकी इस कविता की पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार है –
मेरे गिरिधारी जी से काहे लरी ॥
तुम तरुणी मेरो गिरिधर बालक काहे भुजा पकरी ॥
सुसुकि सुसुकि मेरो गिरिधर रोवत तू मुसुकात खरी ॥
तू अहिरिन अतिसय झगराऊ बरबस आय खरी ॥
गिरिधर कर गहि कहत जसोदा आँचर ओट करी ॥
5 वर्ष की आयु में उन्होंने 15 दिनों के अंदर ही सुन सुनकर 700 छंदों की संपूर्ण भगवत गीता कंठस्थ कर ली। जब वह 7 वर्ष के हुए, तब उन्होंने दादाजी की सहायता से केवल 60 दिनों में ही तुलसीदास जी द्वारा रचित संपूर्ण रामचरितमानस को भी कंठस्थ कर लिया। आगामी कुछ ही वर्षों में गिरधर ने, चारों वेदों, छह शास्त्र, 18 पुराण, उपनिषद, संस्कृत, व्याकरण आदि ग्रंथों को भी सुनकर कंठस्थ कर लिया था।
गिरधर जी ने 17 वर्ष की आयु तक कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ग्रहण की। उन्होंने सिर्फ कानों से सुनकर ही, सारे आध्यात्मिक कार्य किए थे। उनके परिवार की इच्छा थी। कि वह एक प्रसिद्ध कथावाचक बने। लेकिन गिरधर जी पढ़ाई करना चाहते थे।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य औपचारिक शिक्षा
गिरधर जी की इच्छा को समझकर। उनके पिताजी ने उन्हें, एक नेत्रहीन बच्चों के विशेष स्कूल में भेजने का विचार किया। लेकिन उनकी मां ने यह कहकर मना कर दिया। कि वहां नेत्रहीन बच्चों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता।
7 जुलाई 1967 को गिरधर जी जौनपुर जिले के नजदीक के गांव में संस्कृत, व्याकरण, हिंदी, गणित, इतिहास, आदि विषय पढ़ने के लिए गए। उन्होंने आदर्श गौरी शंकर संस्कृत महाविद्यालय में दाखिला लिया। इस समय को रामभद्राचार्य जी अपने जीवन का स्वर्णिम सफर बताते हैं।
केवल एक बार सुनकर, याद रखने की क्षमता के कारण। उन्होंने कभी मॉडर्न टेक्नोलॉजी जैसे ब्रेल लिपि का भी प्रयोग नहीं किया। गिरधर जी लगातार अपनी प्रत्येक कक्षा में सर्वश्रेष्ठ रहे। फिर संस्कृत में उच्च माध्यमिक, हायर सेकेंडरी, इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की।
साल 1971 में वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में अव्वल आते हुए। शास्त्री (ग्रेजुएशन) एवं आचार्य (पोस्ट ग्रेजुएशन) की डिग्री, गिरधर जी ने हासिल की। इन्होंने अपने जीवन में कभी भी हार नहीं मानी। दिल्ली में ऑल इंडिया संस्कृत कांफ्रेंस की प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। जहां उन्होंने संस्कृत, गीत, वेदांत एवं संस्कृत अंताक्षरी में कुल 8 में से 5 गोल्ड मेडल जीते।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य को मानसिक आघात
गिरधर जी जब 11 वर्ष के थे। तभी उन्हें परिवार के साथ, शादी की बारात में जाने से रोक दिया गया। उनके परिवार ने सोचा कि उनकी उपस्थिति शुभ शगुन नहीं होगा। इस घटना ने गिरधर जी के मन में गहरी छाप छोड़ी। वह अपनी कथा में खुद इस बात को स्वीकार करते हैं।
वो कहते है, आज मैं वही व्यक्ति हूं। जिनका शादी या बारात में जाना, अशुभ माना जाता था। लेकिन ईश कृपा से आज मैं वही व्यक्ति हूं। जहां मुझसे लोग शादी, समारोह या कल्याण संबंधी कार्यक्रम का उद्घाटन करवाते हैं। यह सभी ईश्वर की कृपा का ही परिणाम है।
जो एक वज्र को तिनके में, एक तिनके को वज्र में बदल देता है। ईश्वर हमें वह नहीं देता है। जो हमें अच्छा लगता है। बल्कि ईश्वर हमें वह सब कुछ देता है। जो हमारे लिए अच्छा होता है। इसीलिए कहा भी जाता है कि भगवान जो भी करता है। अच्छे के लिए करता है।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निवेदन को ठुकराया
रामभद्राचार्य जी की प्रतिभा से प्रभावित होकर, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने, उन्हें सरकारी खर्चे पर आंखों के इलाज करवाने की पेशकश की। वे उन्हें इलाज के लिए, यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका(USA) भेजना चाहती थी। लेकिन स्वामी जी ने उन्हें संस्कृत के श्लोकों में जवाब देकर, उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। फिर अपनी मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद, सभी कठिनाइयों का सामना करते हुए। सन 1981 में मात्र 31 वर्ष की आयु में, Doctor of Philosophy (PhD) की डिग्री प्राप्त की।
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जगद्गुरु रामभद्राचार्य द्वारा तुलसी पीठ की स्थापना
कुछ वर्षों के बाद, स्वामी जी ने चित्रकूट में, एक तुलसी पीठ की स्थापना की। जो एक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान है। जहां भगवान श्रीराम ने अपने वनवास के 14 वर्षों में से 12 वर्ष व्यतीत किए थे। तुलसी पीठ की स्थापना के 1 वर्ष बाद, पंडित गिरधर मिश्रा को जगद्गुरु रामानंदाचार्य उपाधि से सम्मानित किया गया।
तब से उनका नाम जगतगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज पड़ गया। जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी ने सन 2001 में, विकलांग बच्चों के निशुल्क शिक्षा के लिए निर्णय लिया। जिसके तहत स्वामी जी ‘जगतगुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय’ की स्थापना की।
इस विश्वविद्यालय में नेत्रहीन विकलांग बच्चों को स्नातक में B.Sc, B.Ed, B.Tech तथा परास्नातक में M.A, M.Ed, MBA और कंप्यूटर कोर्सेज में BCA, MBA, MCA तथा PhD तक की शिक्षा निशुल्क दी जाती है। स्वामी जी मानते हैं कि विकलांग हमारे भगवान हैं। हमारा जीवन विकलांगों, धर्म और प्रेम भक्ति को समर्पित है।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य द्वारा न्यायालय में राम जन्मभूमि के शास्त्रीय साक्ष्य
राम जन्मभूमि के मामले में, न्यायालय ने पूछा कि क्या रामलला के जन्म का वेदों में प्रमाण है। अयोध्या का कोई प्रमाण है। तब देश के सभी धर्माचार्यों ने न्यायालय में जाने से मना कर दिया। उस वक्त स्वामी जी ने न्यायालय में पत्र लिखकर, साक्ष्य देने के लिए कहा। न्यायालय ने कहा कि आप बिना देखे कैसे साक्ष्य देंगे।
तब उन्होंने कहा कि आप साक्ष्य किस चीज का चाहते हैं। न्यायालय ने कहा कि हमें शास्त्री साक्ष्य की आवश्यकता है। इस पर रामभद्राचार्य जी ने कहा कि शास्त्रीय साक्ष्य के लिए, भौतिक आंखों की आवश्यकता नहीं होती। शास्त्र ही सबकी आंखें हैं। जिनके पास शास्त्र नहीं हैं। वह दृष्टिहीन हैं। उनके इस वक्तव्य को न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।
न्यायाधीशों ने पूछा कि क्या राम जन्म भूमि का वैदिक प्रमाण उपलब्ध है। तब रामभद्राचार्य जी ने उन्हें अथर्ववेद दिखाया। कि अथर्ववेद के दशम कांड के, 31 में अनुवाक्य के, दूसरे मंत्र में प्रमाण उपलब्ध है। जो इस प्रकार है-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या ।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।
अर्थात वेदों में स्पष्ट कहा है कि 8 चक्र वाली, 9 द्वार वाली वह अयोध्या, राम जन्मभूमि से 300 धनुष उत्तर में, सरजू नदी विराजमान है। रामभद्राचार्य जी ने 441 साक्ष्य प्रस्तुत किये। जब वहां खुदाई की गई। तो 437 साक्ष्य स्पष्ट निकले। उनमें से केवल 4 अस्पष्ट थे। लेकिन वह भी रामलला के ही प्रमाण थे।
इसे न्यायालय ने स्वीकार किया। वही सुप्रीम कोर्ट में भी जब निर्णय आ रहा था। तब 8 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के जज अशोक भूषण जी ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई से कहा। कि निर्णय देने पहले, एक बार जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी का बयान पढ़ लिया जाए। जिसे पढ़ने पर दशा और दिशा दोनों बदली।
9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट का राम जन्मभूमि के पक्ष में निर्णय आ गया। हाईकोर्ट के एक जज ने 5 एकड़ की भूमि विपक्ष को देने का प्रस्ताव रखा था। वह भी सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर निरस्त कर दिया। कि अयोध्या में किसी विधर्मी का स्थल नहीं बन सकेगा। सरजू नदी के उस पार उन्हें 5 एकड़ जमीन दी जा सकती है।
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जगद्गुरु रामभद्राचार्य द्वारा किए गए कार्य व सम्मान
स्वामी रामभद्राचार्य जी अब तक 200 से ज्यादा धार्मिक पुस्तकें एवं 50 से ज्यादा साहित्य की रचना कर चुके हैं। उन्होंने देश ही नहीं। अपितु पूरे विश्व में जैसे इंडोनेशिया, इंग्लैंड, अमेरिका, सिंगापुर आदि देशों में, वह हिंदू धर्म व विश्व शांति हेतु धार्मिक प्रचार यात्राएं कर चुके हैं। रामभद्राचार्य जी को हिंदी साहित्य, व्याकरण एवं हिंदू भाषा के गौरव की रक्षा करने के लिए सम्मानित किया गया।
जिसके तहत उन्हें अखिल भारतीय हिंदी भाषा सम्मेलन भागलपुर, बिहार में उन्हें महाकवि की उपाधि दी गई। 2004 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया। फिर 2011 में पूज्य संत मुरारी बापू द्वारा रामभद्राचार्य जी को तुलसी अवार्ड से नवाजा गया।
उत्तर प्रदेश राज्य सरकार द्वारा इन्हें 2015 में ‘यश भारतीय’ का सम्मान दिया गया। उसी समय भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर प्रणब मुखर्जी एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा, भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया।
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