जगन्नाथ मंदिर | जगन्नाथ मंदिर का इतिहास | जगन्नाथ मंदिर किसने बनवाया

जगन्नाथ मंदिर – किसने बनवाया, संपूर्ण कहानी, इतिहास, अधूरी मूर्तियां, किसकी पूजा की जाती है, मंदिर का रहस्य, रथयात्रा का महत्व।

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1 जगन्नाथ मंदिर – जगन्नाथ मंदिर का इतिहास Bhagwan Jagannath ki Kahani

जो रहते हैं, उजालों में। जो रहते हैं, अंधकार में। जो रहते हैं, शब्दों में। जो रहते हैं, निशब्द में। जो रहते हैं, ब्रह्मांड की शून्यताओं में। जो रहते हैं, पृथ्वी के परिपूर्णताओं में। जो रहते हैं, बच्चों की किताबों में। जो रहते हैं, साधु के रुद्राक्ष में।

अंधे की आंख है, वो। लंगड़े की बैसाखी है, वो। जन्म-मृत्यु, जीवन-यौवन,  सूर्य-चंद्र, ग्रह-नक्षत्र, इस संसार के जीवन मृत्यु के चक्र में, सदा सर्वदा वो ही विद्यमान हैं। जो है, जगत के नाथ प्रभु श्री जगन्नाथ।

वह जो सनातन धर्म के सभी देवताओं में, सबसे रहस्यमई हैं। वह जो दया का सागर है। सारे संसार के सच्चे मित्र हैं। वह जो भगवान ब्रह्मा के सिर पर आभूषण हैं। सर्वोच्च ब्रह्मा के अभिव्यक्ति हैं। वह जिसका सब कुछ बेहद आकर्षक और रहस्यमई है।

वह अकेले ऐसे है। जो अपने भाई बहनों के साथ पूजे जाते हैं। वह अकेले एकमात्र देवता है। जिन्हें प्राचीन काल से ही, भारत में मौजूद सभी धर्म और परंपराओं में पूजा जाता है।

आदिवासी उन्हें निलमाधब के रूप में  दावा करते हैं। हिंदुओं उन्हें भगवान विष्णु  या भगवान कृष्ण के रूप में मानते हैं। जैन उन्हें जीनानाथ मानते हैं। बौद्ध उन्हें बुद्ध मानते हैं। वह है, जगत के नाथ प्रभु श्री जगन्नाथ। इसी प्रकार जाने : भगवान श्रीकृष्ण के जीवित ह्रदय का रहस्य

जगन्नाथ मंदिर

जगन्नाथ मंदिर – एक नजर

पुरी का श्रीजगन्नाथ मंदिर, एक हिंदू मंदिर है। जो भगवान जगन्नाथ को समर्पित है। यह भारत में उड़ीसा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ ‘जगत के स्वामी’ होता है। इनकी नगरी  जगन्नाथ पुरी या पुरी कहलाती है। इस मंदिर को हिंदुओं के, चार धामों में से एक माना जाता है।

यह वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। जो भगवान विष्णु के अवतार, श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मंदिर का वार्षिकोत्सव रथ यात्रा प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथ में विराजमान होकर। नगर की यात्रा को निकलते हैं।

मध्यकाल से ही रथयात्रा का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इसके साथ ही, यह उत्सव भारत के बहुत से, वैष्णव कृष्ण मंदिर में मनाया जाता है। रथ यात्रा निकाली जाती है यह मंदिर वैष्णव परंपरा और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है यह कौडिय वैष्णव संप्रदाय के लिए महत्व रखता है। इसी प्रकार जाने : भगवान विष्णु की उत्पत्ति का रहस्यMystery of God Vishnu।

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जगन्नाथ पुरी मंदिर की उत्पत्ति

 ऐसा माना जाता है कि सतयुग में इंद्रदयुम्न नाम के एक वैष्णव राजा रहते थे। जिनका राज्य अवंती से मालवा तक फैला हुआ था। जिसकी राजधानी अवंती थी। जो वर्तमान में आंध्र प्रदेश और राजस्थान है। भगवान विष्णु के भक्त होने के कारण। हमेशा उनकी एक झलक पाने के लिए उत्सुक रहते थे।

एक दिन, एक यात्रा करने वाले भिच्छु  उनके महल में आ पहुंचे। उन्होंने उग्रदेश यानी उड़ीसा के बारे में, बताते हुए कहा। कि विश्ववसु नाम का एक सबर आदिवासी सरदार, एक गुप्त गुफा में नीलमाधव के रूप में भगवान विष्णु की पूजा करते हैं। वे इसके बारे में, सटीक स्थान या अन्य जानकारी नहीं दे सके।

लेकिन राजा इंद्रदयुम्न भगवान विष्णु को देखने के लिए, बेचैन हो गए। तब वह उग्रदेश का पता लगाने और विश्ववसु को खोजने की उत्सुकता हुई। उन्होंने महल के मुख्य पुजारी के भाई, विद्यापति को आदेश दिया। कि वह नीलमाधव की खोज करें। विद्यापति जो पहले ही कई देशों की यात्रा कर चुके थे। उन्होंने राजा के आदेशानुसार उग्रदेश की तलाश में निकल पड़े।

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विद्यापति का भगवान नीलमाधव को खोजना

विद्यापति बड़ी लंबी यात्रा के बाद, उग्रदेश में पहुंचे। वह वहां के सबर सरदार विश्ववसु से मिले। उन्होंने अपनी पहचान और उद्देश को छुपाते हुए। उससे दोस्ती कर ली। वहां रहते हुए, उनकी मुलाकात विश्ववसु की सुंदर युवा बेटी ललिता से हुई।

जल्दी उन्हें प्यार हो गया। फिर उन्होंने गुपचुप तरीके से शादी कर ली। इसके बाद, विद्यापति कुछ दिन अपने ससुराल में रहे। उन्होंने ससुराल में रहते हुए देखा। कि विश्ववसु आधी रात को बाहर जा रहे थे। फिर अगले दिन लौट रहे थे। उनके शरीर से  चंदन और कस्तूरी की मीठी सुगंध निकल रही थी।

विद्यापति ने जब ललिता से, उसके बारे में पूछा। तो वह पहले तो टाल गई। लेकिन कुछ देर बाद, उसने अपने पिता के निर्देशों के खिलाफ खुलासा किया। कि उसके पिता नीलमाधव की पूजा करने के लिए। जंगल में एक गुफा में जाते हैं। विद्यापति इसी जानकारी की तलाश में थे।

 उन्हें यह जानकर बहुत खुशी हुई। वे गुफा का स्थान को जानने के लिए उत्सुक हो गए। ताकि वह इसके बारे में, राजा इंद्रदयुम्न को बता सकें। फिर उन्होंने ललिता से लगातार अनुरोध किया। वे नीलमाधव को दिखाने के लिए, गुफा की यात्रा की व्यवस्था करें। इसी प्रकार जाने : भगवान विष्णु के दशावतार की कथाBhagwan Vishnu Ke 10 avatar in Hindi।

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विद्यापति को भगवान नीलमाधव के दर्शन

पहले तो ललिता ने यह कहकर मना कर दिया। कि यह असंभव है। क्योंकि उसके पिता कभी सहमत नहीं होंगे। हालांकि कुछ झिझक के बाद, उसने अपने पिता से इस संबंध में बात की। उनके पिता अपनी बेटी के अनुरोध को मानते हुए। अनिच्छा से सहमत हुए। फिर यह निश्चित किया गया। कि विद्यापति विश्ववसु के साथ, आंखों पर पट्टी बांधकर जाएंगे।

नीलमाधव को देखने के बाद, उसी तरह वापस लौट आएंगे। चतुर विद्यापति ने इस अवसर का लाभ उठाया। गुप्त गुफा के रास्ते को याद रखने के लिए, चुपचाप अपनी लँगोट के कोने पर। कुछ सरसों के दाने बांध दिए। जैसे ही वह गुफा के रास्ते आगे बढ़े। वैसे-वैसे वह सरसों के दाने गिराते गए।

वहां पहुंचकर, जब विद्यापति ने नीलमाधव को देखा। तो विद्यापति की आंखें खुशी से चमक उठी। उनका लक्ष्य और उद्देश्य पूरा हो गया था। नीलमाधव की आराधना में, कुछ समय लगाकर, वह लौट गए। कुछ समय बाद, ललिता को विदा से विदा लेते हुए। जल्दी वापस लौटने का वादा किया। इसके बाद विद्यापति अवंती वापस लौट आए।

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भगवान नीलमाधव का अंतर्ध्यान होना

अवंती पहुंचकर, विद्यापति ने इंद्रदयुम्न को अपने निष्कर्ष बताएं। जो उत्सुकता से, उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इंद्रदयुम्न ने कोई समय नहीं गंवाया। फिर हमेशा के लिए, भगवान विष्णु की पूजा के उद्देश्य से, नीलमाधव को अपने राज्य में लाने का फैसला किया। राजा इंद्रदयुम्न ने अपनी सेना के साथ, उग्रदेश पर आक्रमण की आवश्यक तैयारी की।

इंद्रदयुम्न में उग्र देश पर आक्रमण किया। फिर विश्ववसु को कैद कर लिया। तब विश्ववसु को विद्यापति की चालाकी का पता चला। राजा ने विश्ववसु से नीलमाधव  को दिखाने के लिए, गुफा में ले जाने को कहा। जिसे विश्ववसु ने साफ इनकार कर दिया। इसी बीच बारिश का मौसम शुरू हो गया था।

विद्यापति के द्वारा फेंके गए सरसों के  बीज, गुफा के रास्ते में पीले फूल दे रहे थे। फूलों के रास्ते पर चलकर, इंद्रदयुम्न को गुफा तक पहुंचने में, कोई दिक्कत नहीं हुई। लेकिन जब वे वहां पहुंचे। तब नीलमाधव अंतर्ध्यान हो चुके थे। राजा निराश हो गए।  गुस्से में पूरे उग्रदेश को घेरने का फैसला किया। अचानक एक तेज, सूक्ष्म आवाज आई।       

हे राजन! आपने मेरे प्रबल भक्त विश्वबसु को कैद करके, घोर अपराध किया है। इस संसार में, मैं तुम्हें नीलमाधव के रूप में दर्शन नहीं दूंगा। विश्वावसु को तुरंत रिहा करो। इंद्रदयुम्न निराश और मायूस थे। क्योंकि वह भगवान विष्णु को, नीलमाधव के रूप में नहीं देख सकते थे। हालांकि, दिव्य आदेश का पालन करते हुए। उन्होंने विश्ववसु को रिहा कर दिया। फिर खाना पीना छोड़कर, भगवान विष्णु का ध्यान में लग गए। इसी प्रकार जाने : स्वास्तिक चिन्ह स्वास्तिक का महत्वस्वस्ति का अर्थ स्वास्तिक चिन्ह कैसे बनाएं

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भगवान कृष्ण व द्वापर युग का अंत कैसे हुआ

 दूसरी तरफ, भगवान कृष्ण ने एक महान जल प्रलय के माध्यम से, यदुवंश का अंत किया। अब भगवान कृष्ण के लिए, सांसारिक दुनिया को छोड़ने और द्वापर युग का अंत करने का समय आ गया था। इस प्रक्रिया में वह द्वारका के पास के जंगलों में भटक रहे थे। जब जारा सवर नाम के एक आदिवासी शिकारी ने, उन्हें अनजाने में हिरण समझकर अपने तीर से मारा।

जब जारा को अपनी गलती के बारे में पता चला। तो वह रोने लगा। उसने भगवान कृष्ण से क्षमा करने के लिए कहा। भगवान कृष्ण ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा। यह घटना उनके अवतार को समाप्त करने के लिए, पूर्व निर्धारित थी। भगवान कृष्ण ने जारा को अपने शरीर को जलाने और राख को रात को समुद्र में विसर्जित करने के लिए कहा।        

लेकिन जारा उनके शरीर को पूरी तरह से जला नहीं सका। कहा जाता है कि इस आग में उनका दिल व नाभि का भाग जला नहीं था। हालांकि जैसा आदेश दिया गया था। उसने कृष्ण के अवशेषों को समुद्र में विसर्जित कर दिया। जो बाद में, एक दिव्य लकड़ी के रूप में तैरते हुए। पुरी के समुद्र तट पर पहुंचा।

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राजा इंद्रदयुम्न को श्रीकृष्ण के ह्रदय का मिलना

 जब इंद्रदयुम्न ध्यान में थे। तब भगवान विष्णु उनके सपने में प्रकट हुए। उन्हें उल्लेख किया। कि वह बाकुम्म माडव, पूरी के पास के एक माडव में, लकड़ी के दारू के रूप में समुद्र में तैरते हुए आएंगे। उसमें से अपने स्वयं का रूप और छवि बनाएंगे। इंद्रदयुम्न जैसे ही जागे। तो वे बाकुम्म माडव  पहुंचे।

शुभ संकेत के साथ, इंद्रदयुम्न को पवित्र लकड़ी का दारू दिखाई दिया। वे उसे विश्ववसु की सहायता से, महल के पास एक मंच पर ले आए। भगवान विष्णु की मूर्ति को तराशने के लिए कई अनुभवी बढ़ाई और मूर्ति को लगाया गया। लेकिन कोई भी भगवान विष्णु की छवि को तराश नहीं पाया। राजा इंद्रदयुम्न चिंतित थे। कि कैसे भगवान विष्णु को आकार दिया जाए। इसी प्रकार जाने : कैलाश पर्वत की कहानी, इतिहास व रहस्यक्यों है कैलाश पर्वत अजेय।

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भगवान विश्वकर्मा ने तराशा भगवान जगन्नाथ का विग्रह

राजा इंद्रदयुम्न की चिंता के समय ही, एक बूढ़ा व्यक्ति महल में आया। जिसने अपने आपको अनंत महाराणा बताया। जिसे दिव्य बढ़ाई विश्वकर्मा माना जाता है। उन्होंने राजा को भरोसा दिलाया। कि वह मूर्ति निर्माण कर सकते हैं। लेकिन कुछ शर्त पर कि वह मूर्ति को 21 दिन में बनाएंगे। वह इसे अकेले ही बनाएंगे।

जब तक वह अपना काम पूरा नहीं कर लेते। तब तक उन्हें कोई भी परेशान नहीं करेगा। न ही कोई महल के अंदर प्रवेश  करेगा। राजा इंद्रदयुम्न ने उसकी शर्त मान ली। फिर उस बूढ़े ने महल का दरवाजा बंद करते हुए। काम करना शुरू कर दिया। लोगों को सिर्फ हथौड़ी-छेनी की आवाजें सुनाई देती थी।

इस तरह दो हफ्ते बीत गए। फिर उन्हें एक दिन कुछ भी सुनाई नहीं दिया। रानी गुंडिचा उत्सुक और बेचैन हो गई। उन्होंने सोचा कि बूढ़ा आदमी बिना भोजन और पानी के, भूख-प्यास से मर गया होगा। रानी ने इंद्रदयुम्न से, उस बूढ़े व्यक्ति को बचाने का आग्रह किया। इंद्रदयुम्न ने अपनी इच्छा  के विपरीत दरवाजा तोड़ दिया।

जब राजा ने अंदर प्रवेश किया। तो देखा कि बूढ़ा कारीगर गायब हो गया था। जो अपने पीछे आधी बनी, तीन मूर्तियां छोड़ गया है। इंद्रदयुम्न ने वादा तोड़ने के अपने कृत्य के लिए पश्चाताप किया। फिर अपने जीवन को समाप्त करने के बारे में सोचा। तभी एक सूक्ष्म आवाज ने घोषणा की।

हे राजन! आपने अपना वादा तोड़ दिया है। समय से पहले दरवाजा खोल दिया है। अफसोस न करें। अब मैं स्वयं को, इसी रूप में, भक्तों के सामने प्रकट करूंगा। मेरी यथाविधि स्थापना करो और पूजा करना शुरू करो। इसी प्रकार जाने : Bhagwan Shiv Ke 12 Jyotirling Ki Kathaउत्पत्ति कब और कैसे हुई।

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नीलांचल पर्वत पर भव्य मंदिर का निर्माण

परम भगवान विष्णु के आश्वासन पर इंद्रदयुम्न ने नीलांचल पर्वत पर। एक भव्य मंदिर का निर्माण कार्य शुरू किया। मंदिर के अभिषेक और जगन्नाथ जी की स्थापना के लिए, वह अपनी रानी गुंडिचा के साथ ब्रह्मलोक गए। उन्होंने भगवान ब्रह्मा को आमंत्रित किया। जब इंद्रदेव और गुंडिचा  ब्रह्मलोक पहुंचे। तो भगवान ब्रह्मा गहरे ध्यान में थे।

ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मलोक में 1 दिन, मृत्युलोक के एक युग यानी मिलियन वर्ष के बराबर होता है। उन्होंने तब तक प्रतीक्षा कि जब तक भगवान ब्रह्मा ने, अपना ध्यान समाप्त नहीं किया। फिर उन्होंने भगवान ब्रह्मा से मंदिर को पवित्र करने और जगन्नाथ की स्थापना करने का अनुरोध किया। भगवान ब्रह्मा ने निमंत्रण स्वीकार किया। वे उनके साथ नीलांचल गए।

जब वह लौटे। तब तक एक युग बीत चुका था। इस लंबी अवधि के दौरान इंद्रदयुम्न के द्वारा निर्मित मंदिर रेत से ढका हुआ था। एक नया पौराणिक राजा काला माधव उसके राज्य पर शासन कर रहे थे। एक दिन जब काला माधव अपने घोड़े पर यात्रा कर रहे थे। तब घोड़े का खुर मंदिर के शिखर से टकरा गया।

उसने उस जगह की खुदाई करवाई। फिर मंदिर का पुनरुद्धार किया। दूसरी तरफ जब इंद्रदयुम्न, भगवान ब्रह्मा के साथ वापस लौटे। तब उन्होंने काला माधव को अपने राज्य पर शासन करते और मंदिर के मालिक के रूप में दावा करते हुए पाया। उनके बीच विवाद हो गया। उन्होंने भगवान ब्रह्मा से मध्यस्थता करने का आग्रह किया।

भगवान ब्रह्मा के पूछताछ पर, यह स्पष्ट हुआ। कि इंद्रदयुम्न ने वास्तव में मंदिर का निर्माण किया था। लेकिन काला माधव ने इसे बचाया था। भगवान ब्रह्मा ने तब अभिषेक के अनुष्ठान को आगे बढ़ाया। इंद्रदयुम्न की भक्ति, उनकी पूजा व महान मंदिर के निर्माण से भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए। इसी प्रकार जाने : सनातन धर्म का अर्थ व उत्पत्तिसनातन धर्म क्या है। Sanatan Dharm in Hindi।

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भगवान जगन्नाथ यात्रा का महत्व व कारण

भगवान विष्णु ने, राजा इंद्रदयुम्न से किसी भी वरदान को मांगने के लिए कहा। इस पर महान भक्तों इंद्रदयुम्न ने कहा। यदि आप वास्तव में, मुझ पर प्रसन्न है। तो मुझे यह वरदान दे। कि मैं निर्गुण हो जाऊं। ताकि कोई भी शरीर, यह दावा न कर सके। आपके मंदिर को, उनके पूर्वजों द्वारा बनाया गया था।

यदि भविष्य में आपका मंदिर या आपकी मूर्ति क्षतिग्रस्त या नष्ट हो जाए। तो भी आप यहां रहेंगे। इस स्थान को नहीं  छोड़ेंगे। राजा की प्रार्थना के अनुसार, भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया। लेकिन रानी गुंडिचा निर्गुण होने की बात को सहन नहीं कर सकी। क्योंकि कोई भी महिला निर्विकार नहीं रहना चाहेगी।

वह स्वाभाविक रूप से आहत और दुखी थी। जिसे भगवान विष्णु समझ सकते थे। भगवान विष्णु ने उन्हें यह कहते हुए, सांत्वना दी। कि वह उनके घर में पैदा हुए हैं। वे उनके बेटे समान हैं। वह उनकी मां  समान है। वे उन्हें कभी मना नहीं कर सकते।

हर साल रथ यात्रा के दौरान, 9 दिन तक उनके पास आकर रुकते थे। उनके द्वारा बनाए गए, स्वादिष्ट भोजन को खाते थे। इसलिए रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र के साथ गुंडिचा मंदिर जाते हैं। वहां 9 दिन बिताते हैं।      

रानी गुंडिचा जो देवकी नहीं है। यशोदा भी नहीं है। बस उस कान्हा ने, उनसे वादा किया था। इसलिए हर साल, अपना वादा पूरा करने आ जाते हैं। ऐसे हैं, भगवान जगन्नाथ। जो अपने भक्तों की देखभाल के लिए, बिना पलकों के, अपनी आंखें हमेशा खुली रखते हैं।

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