प्रेमचंद का जीवन परिचय
Premchand ka Jivan Parichay
मंदिर में दान खाकर,
चिड़िया मस्जिद में पानी पीती है।
सुनने में आता है राधा की चुनरीया,
कोई सलमा बेगम सीति है।
एक रफी साहब थे जो,
मैसेज रघुपति राघव राजा राम गाते थे।
और था एक प्रेमचंद जो बच्चों को,
ईदगाह सुनाता था।
कभी कन्हैया की लीला गाता,
रसखान सुनाई देता है,
बाकियों को दीखते होंगे हिंदू और मुसलमान,
मुझे तो हर जीव में भीतर एक भोला इंसान दीखता है।
प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उनकी रचनाओं में, तत्कालीन इतिहास बोलता है। उनके हृदय में गरीबों और पीड़ितों के लिए, सहानुभूति का अथाह सागर था। उन्होंने अपनी रचनाओं में जनसाधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियां भारत की सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियां हैं।
आधुनिक हिंदी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट प्रेमचंद सादे और सरल जीवन के मालिक थे। एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित करके, प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिंदी साहित्य की एक ऐसी विरासत है। जिसके बिना हिंदी के विकास का अध्ययन अधूरा माना जाएगा।
बीसवीं सदी के शुरुआत में, जब हिंदी में तकनीकी सुविधाओं का अभाव था। तब उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद ने हिंदी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया। जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। प्रेमचंद्र का नाम आते ही, हमारे मन में उजागर होती है। सचेत व सजीव कहानियां।
जो हमारी पारंपरिक सोच, हमारे रूढ़िवादी विचारों को, झकझोर कर रख देती है। उनकी कहानियां सिर्फ कहानियां नहीं बल्कि प्रकाश की तरह है। जो हमारी सामाजिक और व्यक्तिगत भ्रांतियों के अंधेरे को मिटाने का प्रयास करती है। हिंदी कहानी साहित्य में, प्रेमचंद एक मील का पत्थर है। प्रेमचंद्र जी ने अपने जीवन काल में लगभग 300 कहानियों की रचना की।
उन्होंने मानवीय पक्ष के साथ, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और ऐतिहासिक विषयों पर आधारित अनेक कहानियां लिखी। अपनी कहानियों में, उन्होंने अंधविश्वास, धार्मिक ढोंग, स्वार्थ, शोषण और अन्याय का खुलकर विरोध किया। उनकी कहानियां पढ़कर लगता है। जैसे उनकी आत्मा बोल रही है
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Munshi Premchand – An Introduction
प्रेमचंद्र का प्रारंभिक जीवन
प्रेमचंद्र का जन्म 31 जुलाई 1880 को, बनारस से 4 मील दूर लमही नामक गांव में, एक जमींदार परिवार के यहां हुआ था। उनके पिताजी का नाम अजायबराय था। जो कि भारतीय डाक विभाग में मुंशी का काम किया करते थे। इनकी माता का नाम आनंदी देवी था। उनका देहांत तब हो गया। जब प्रेमचंद्र मात्र 8 साल के थे।
इनका बचपन का वास्तविक नाम धनपतराय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद्र बचपन में छोटी-छोटी शरारतें किया करते थे। किसी के खेत में घुसकर, गन्ना तोड़ लाना। मटर उखाड़ लाना। यह तो रोज की बात हुआ करती थी। जिसके लिए खेत वालों की गाली भी खानी पड़ती। उन्हें आम पकने पर तो, और भी मजा आता। जब एक दो निशाने में ही, पके आम जमीन पर होते।
इन सबके लिए उन्हें अक्सर डांट व उलाहना भी सुनने को मिलती। उनके पिताजी काम के सिलसिले में बहुत व्यस्त हुआ करते थे। उनकी एक बड़ी बहन थी। जिनकी भी शादी हो चुकी थी। प्रेमचंद की मां के देहांत के बाद, उनके पालन-पोषण का जिम्मा। उनकी दादी ने लिया। लेकिन बहुत ही जल्द उनका भी देहांत हो गया।
इसके बाद उनके पिताजी ने दूसरी शादी कर ली। उस वक्त, उनके पिताजी गोरखपुर में कार्यरत थे। प्रेमचंद्र अजायबराय के चौथे बच्चे थे। उनके पहले दो लड़कियों का बचपन में ही देहांत हो गया था।
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प्रेमचंद्र की शिक्षा-दीक्षा
प्रेमचंद्र की पढ़ाई 8 साल में शुरू हो गई थी। ठीक वही पढ़ाई, जिसका कायस्थ घरानों में चलन था। उनकी पढ़ाई के विषय उर्दू और फारसी हुआ करते थे। लमही से दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर, लालपुरा गांव था। वही एक मौलाना साहब रहते थे। जो पेशे से तो दर्जी थे। लेकिन मदरसा भी चलाते थे।
इनके पिता अजायबराय को उर्दू के प्रति अधिक रूचि थी। इसलिए उन्होंने प्रेमचंद को उर्दू की शिक्षा दिलवाई। मौलवी जी से, इन्होंने उर्दू और फारसी की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने बड़े परिश्रम से अपनी पढ़ाई को पूरा किया। धीरे-धीरे प्रेमचंद की रुचि उर्दू में बढ़ने लगी। जिसका परिणाम यह हुआ। कि उन्होंने 13 वर्ष की उम्र में, तिलिस्म-ए-होशरुबा जैसे विशाल उर्दू ग्रंथ पढ़ डालें।
यह वह समय था। जब शिक्षा का अधिक विकास नहीं हुआ था। शिक्षा की सुविधाएं ग्रामीण स्तर पर इतनी विकसित नहीं थी। उस समय के उर्दू के उपन्यासकार रतननाथ सरशार, मिर्जा हादी रुस्वा, मौलाना शरर के उपन्यासों को भी पढ़ डाला था।
वह अपने गांव से 5 मील की दूरी पर, शहर पढ़ने जाते थे। रात में घर आकर, कुप्पी जलाकर खुद पढ़ते थे। 1898 में प्रेमचंद ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद कॉलेज में पढ़ने के लिए, सिफारिश की जरूरत थी। तो बड़ी मुश्किलों के बाद, वह कॉलेज में भर्ती हुए। इस दौरान वे बनारस में रहने लगे।
उन्होंने 1910 में अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास विषयों के साथ इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी दौरान उनके पिताजी का तबादला जामनिया में हो गया। तब प्रेमचंद ने बनारस के कुइन्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। इसके बाद 1919 में, उन्होंने बीए की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।
प्रेमचंद्र का विवाह
यह वह दौर था। जब कम उम्र में ही शादी कर दी जाती थी। जिसके कारण 1895 में, उनका विवाह मात्र 15 साल की उम्र में ही कर दिया गया। उनकी पत्नी एक अमीर जमींदार की बेटी व उनसे उम्र में काफी बड़ी थी। उस वक्त प्रेमचंद नवी कक्षा में थे। प्रेमचंद्र की उनसे भी खास नहीं बनती थी। जिसके कारण, प्रेमचंद घर में रहना पसंद नहीं करते थे।
इसी के बाद 1997 में, उनके पिता का देहांत हो गया। जिसके बाद घर की सारी जिम्मेदारियां भी, उनके ऊपर आ गई। शिवा रानी देवी और प्रेमचंद की उम्र में अंतर होने के कारण, दोनों के विचार भी अलग थे। जिसके कारण उनके बीच, काफी विवाद हुआ करता था। प्रेमचंद की सौतेली मां के साथ भी अच्छे संबंध नहीं थे। जिसके वह घर में रहना पसंद नहीं करते थे।
एक बार तो उनकी पत्नी ने आत्महत्या करने की भी कोशिश की। लेकिन तब प्रेमचंद ने, उन्हें फटकार लगाई। जिससे नाराज होकर, उनकी पत्नी मायके चली गई। फिर न ही प्रेमचंद होने दोबारा लेने गए। न ही उनकी पत्नी वापस लौटी।
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प्रेमचंद्र के संघर्ष के दिन
प्रेमचंद जी बनारस में, अपनी शिक्षा के दौरान ट्यूशन पढ़ाने का काम करने लगे। वे बनारस के एक अधिवक्ता के बच्चे को पढ़ाने लगे। जिसके बदले उन्हें ₹5 मिलते थे। जिसका 60% प्रेमचंद घर भेजा करते थे। वह उन वकील साहब के घर मिट्टी के तबेले में रहा करते थे। सन 1910 में उनकी नौकरी बहराइच के सरकारी स्कूल में, सहायक अध्यापक के रूप में हो गई।
उस समय उनकी तनख्वाह ₹20 प्रति माह थी। फिर 3 महीने बाद, उनका स्थानांतरण प्रतापगढ़ में हो गया। जहां प्रेमचंद एक एडमिनिस्ट्रेटर के बंगले में रहते थे। वही उनके बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया करते थे। यहीं पर उन्होंने अपना पहला लघु उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ लिखा। जिसमें उन्होंने मंदिर के पंडितों द्वारा की जाने वाली धोखाधड़ी और महिलाओं के हो रहे यौन शोषण के बारे में लिखा था।
इसके बाद उन्हें प्रतापगढ़ से ट्रेनिंग के लिए, इलाहाबाद जाना पड़ा। फिर मई 1905 में, वे कानपुर आ गए। इसके बाद वे जून 1909 तक कानपुर में ही रहे। यहीं पर उनकी मुलाकात उर्दू पत्रिका ‘जमाना’ के एडिटर मुंशी दया नारायण निगम से हुई। इन्होंने ही धनपत राय को, प्रेमचंद के नाम से आर्टिकल लिखने के लिए प्रेरित किया। उन्ही के माध्यम से, उन्हें आर्टिकल लिखकर, पत्रिका में छपवाने का मौका मिल पाता था।
मुंशी प्रेमचंद्र का दूसरा विवाह
1906 में प्रेमचंद की दूसरी शादी, बाल विधवा शिवारानी देवी से हुई। जो फतेहपुर के पास, एक जमींदार की बेटी थी। लेकिन प्रेमचंद्र काफी आगे की सोच रखने वाले थे। उन्होंने विधवा विवाह के ऊपर भी कहानी लिखी। उस वक्त विधवा विवाह करना, सामाजिक नियमों के खिलाफ था।
शिवारानी देवी और प्रेमचंद एक-दूसरे से बेहद प्रेम करते थे। इसलिए प्रेमचंद के देहांत के बाद, शिवारानी देवी ने उनके ऊपर एक किताब लिखी। प्रेमचंद और शिवा रानी देवी के तीन बच्चे थे। जिनमें 2 पुत्र अमृतराय व श्रीपद राय थे। जबकि उनकी एक पुत्री कमला देवी श्रीवास्तव भी थी।
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मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ और उपन्यास
Premchand ki Rachnaen
1905 में अंग्रेजो के खिलाफ, राष्ट्रवाद जोर ले रहा था। तभी प्रेमचंद ने ‘जमाना’ पत्रिका में एक आर्टिकल लिखा। जिसमें प्रेमचंद्र ने इंडियन नेशनल कांग्रेस के लीडर, बाल कृष्ण गोखले के बारे में लिखा था। क्योंकि उनके अनुसार, देश की आजादी के लिए गोपाल कृष्ण गोखले के साथ नहीं। बल्कि बाल गंगाधर तिलक के साथ चलना ज्यादा बेहतर होगा।
1906 से प्रेमचंद्र ने अपनी कहानियां और उपन्यास को प्रकाशित करना शुरू किया। 1907 में पहली बार प्रेमचंद ने, अपनी पहली कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ जमाना पत्रिका में प्रकाशित करवाया। उसी साल उनका कहानी संग्रह, ‘सोजे वतन’ प्रकाशित हुआ। जिसमें कुछ कहानियां, भारतीयों को आजादी के लिए प्रेरित करती थी।
इसलिए अंग्रेजी सरकार ने, उनकी ‘सोजे वतन’ की 500 कॉपियों को जला दिया। 1909 में प्रेमचंद का स्थानांतरण महोबा में हो गया। इसके बाद उनकी नियुक्ति सब ड्यूटी इंस्पेक्टर के रूप में, हमीरपुर के एक स्कूल में हो गई। उसके बाद 1916 में, उनका स्थानांतरण गोरखपुर में हो गया। यहाँ वे पदोन्नत के साथ, सहायक अध्यापक नियुक्त हुए।
1919 में उनके 4 उपन्यास प्रकाशित हुए। इनमें केवल ‘सेवा सदन’ ही उपन्यास था। जो हिंदी में प्रकाशित हुआ। प्रेमचंद की ‘बाजार-ए-हुस्न’ उपन्यास को कोलकाता के पब्लिशर्स ने हिंदी में प्रकाशित किया। प्रेमचंद को इसके एवज में, ₹450 मिले थे। इसके बाद 1919 में, इलाहाबाद से बीए की डिग्री के साथ, वह ग्रेजुएट हुए। फिर 1921 में, उनकी पदोन्नति डिप्टी इस्पेक्टर के रूप में हो गई।
प्रेमचंद्र ने अपने पूरे जीवन में 300 कहानियों का लेखन किया। इसमें ‘ईदगाह’, ‘दो बैलों की कथा’, ‘नमक का दरोगा’, ‘पूस की रात’ और ‘बड़े घर की बेटी’ शामिल थे। जिसमें आनंदी का किरदार, उनकी सौतेली मां से प्रेरित था। उन्होंने अपने जीवन में जो खुद भी देखा। उसे अपनी कलम से, कागज पर उतार दिया।
यह उनकी लेखन शैली का ही जादू है। जो हर इंसान को, उसकी वास्तविकता दिखा जाता है। उनकी कहानियों के संग्रह को, ‘मानसरोवर’ नाम से आठ भागों में प्रकाशित किया गया।
प्रेमचंद्र की असहयोग आंदोलन में हिस्सेदारी
फरवरी 1921 में महात्मा गांधीजी असहयोग आंदोलन कर रहे थे। वे लोगों को ब्रिटिश शासन की नौकरियों का त्याग करने पर जोर दे रहे थे। इससे प्रेमचंद काफी प्रभावित हुए। इसी के तहत, उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी। 18 मार्च 1921 को, वह गोरखपुर से बनारस आ गए। फिर अपने लेखन में पर ध्यान देना शुरू किया।
लेकिन 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया। इसके बाद प्रेमचंद ने, ‘सरस्वती प्रेस’ नाम से एक प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत की। लेकिन यह काम भी ठीक से नहीं चला। 1928 में उनका उपन्यास ‘गबन’ आया। जो मध्यमवर्गी पर लिखी गई थी। इसी बीच उनकी पत्रिका ‘जागरण’ प्रकाशित हुई।
प्रेमचंद्र का बॉलीवुड में योगदान
प्रेमचंद्र 31 मई 1934 में बॉलीवुड फिल्मों में, हाथ आजमाने के लिए बॉम्बे आ गए। यहाँ पर उन्हें ‘अजंता प्रोडक्शन कंपनी’ ने ₹8000 वार्षिक मेहनताने के साथ, स्क्रिप्ट लिखने का काम दिया। इससे प्रेमचंद अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की उम्मीद कर रहे थे। उन्होंने मुंबई के दादर में रहकर, ‘मजदूर’ फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी।
इसमें मजदूरों की दुर्दशा को दिखाया गया था। जिस पर बड़े बिजनेसमैन के दबाव को भी दिखाया गया था। इस फिल्म पर पूंजीपतियों ने स्टे ले लिया था। यह फिल्म दिल्ली और लाहौर में रिलीज हुई। इस फिल्म से मजदूर काफी प्रभावित हुए। जिसके फलस्वरूप, उन्होंने मिल मालिकों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
यह आंदोलन एक क्रांतिकारी कदम था। प्रेमचंद्र के लेखन में वो जादू था। जो किसी भी इंसान को, उसकी सच्चाई दिखा सकता था। लेकिन उनकी ज्यादातर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कमाल नहीं कर पाती थी। केवल ‘शतरंज के खिलाड़ी’ एक ऐसी फिल्म थी। जो बॉक्स ऑफिस पर, अच्छी खासी चली। जिसका निर्देशन सत्यजीत राय ने किया था।
प्रेमचंद्र की मृत्यु
मुंबई से वापस आने के बाद, प्रेमचंद इलाहाबाद में रहना चाहते थे। यहीं से उनके बेटे श्रीपत राय और अमृत कुमार राय, अपनी पढ़ाई कर रहे थे। प्रेमचंद ‘हंस’ प्रकाशित करना चाहते थे। लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी थी। इसके साथ ही उनकी सेहत भी गिरने लगी थी।
प्रेमचंद ने ‘हंस’ की जिम्मेदारी Indian Literacy Council को सौंप दी। फिर प्रेमचंद बनारस चले गए। फिर 1936 में Progressive Writers Association in Lucknow में, इलेक्शन के तहत अध्यक्ष नियुक्त हुए।
इसी काम के बीच उनकी तबीयत बिगड़ती गई। 8 अक्टूबर 1936 को, उनका देहांत हो गया। अपने अंतिम समय तक, प्रेमचंद पैसों की तंगी के लिए झुझते रहे।
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