तुलसीदास का जीवन परिचय | Tulsidas Ke Dohe | Tulsidas Ki Rachnaye

तुलसीदास का जीवन परिचय – तुलसीदास के दोहे
Tulsidas ka Jivan Parichay – Tulsidas Ke Dohe

तुलसी ने मानस लिखा था जब जाति-पाँति-सम्प्रदाय-ताप से धरम-धरा झुलसी।

झुलसी धरा के तृण-संकुल पे मानस की पावसी-फुहार से हरीतिमा-सी हुलसी।।

हुलसी हिये में हरि-नाम की कथा अनन्त सन्त के समागम से फूली-फली कुल-सी।

कुल-सी लसी जो प्रीति राम के चरित्र में तो राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।।

आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुन्ज आप रूप गर्भ में समाय गये तुलसी।

जन्मते ही राम-नाम मुख से उचारि निज नाम रामबोला रखवाय गये तुलसी।।

रत्नावली-सी अर्द्धांगिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ प्रीति पाय गये तुलसी।

मानस में राम के चरित्र की कथा सुनाय राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।।

Tulsidas ka Jivan Parichay

  जिस तरह भारतवर्ष में तुलसी के पौधे को, घर-घर श्रद्धा और आदर का स्थान दिया जाता है। उसी तरह राम भक्त, गोस्वामी तुलसीदास तथा उनकी अमर रचना रामचरितमानस को अत्यंत श्रद्धा, आदर एवं प्रेम का स्थान दिया जाता है। रामचरितमानस के अलावा गोस्वामी तुलसीदास के रचे गए सुंदरकांड तथा  हनुमान चालीसा का घर-घर पाठ किया जाता है।

       तुलसीदास जी भक्ति काल की सगुण काव्यधारा में, राम भक्ति के अग्रणी कवि माने जाते हैं। हिंदी साहित्य के विकास में, भक्ति काल का महत्वपूर्ण योगदान है। इस काल में भक्ति से संबंधित बहुत सारी रचना लिखी गई। हिंदी साहित्य का भक्ति काल दो भागों में बटा हुआ है।

        कुछ ऐसे कवि और लेखक थे। जो निर्गुण भक्ति उपासक कवि थे। जो भगवान को किसी भी रंग-रूप में बंधा हुआ नहीं मानते थे। दूसरी तरफ कुछ कवि ऐसे थे। जो सगुण भक्ति के उपासक थे। सगुण का अर्थ, उन्होंने भगवान को एक रूप में कल्पित किया।

      उन्होंने भगवान की आकृति को पूजा। सगुण भक्ति शाखा के दो भाग थे। एक कृष्ण भक्ति शाखा और दूसरी राम भक्ति शाखा। तुलसीदास जी राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। भगवान राम, तुलसीदास जी के आराध्य देव थे। तुलसीदास ने भगवान राम को आधार बनाकर ही, अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ रामचरितमानस की रचना की।

       इसके अतिरिक्त भी इन्होंने कई रचनाएं की। उनमें भी इन्होंने राम को ही आधार मानकर ही रचनाएं की। यह राम के अनन्य भक्त थे। श्री राम के जीवन के प्रत्येक पहलुओं का, इन्होंने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ रामचरितमानस में वर्णन किया है।

Tulsidas – An Introduction

सगुण भक्ति शाखा के अग्रणी कवि

 गोस्वामी तुलसीदास

एक नजर

वास्तविक नाम

• तुलाराम दुबे

• रामबोला

प्रसिद्ध नाम

गोस्वामी तुलसीदास

जन्म-तिथि

1532 ईसवी

( विक्रम संवत 1589)

जन्म-स्थान

राजापुर, जिला बांदा, उत्तर प्रदेश

पिता

आत्माराम दुबे

माता

• हुलसी देवी दुबे  (जन्मदात्री)

• चुनियाँ दासी

 ( पालन करने वाली)

पत्नी

रत्नावली

बच्चे

तारक (बेटा)

गुरु

नरहरिदास

शिक्षा

संत नरहरी दास के आश्रम में भक्ति की शिक्षा, वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास व पुराण की शिक्षा प्राप्त की।

प्रसिद्ध महाकाव्य

रामचरितमानस

उपलब्धि

सम्मान

• लोकमानस कवि

• गोस्वामी

• अभिनवबाल्मीकि

कथन

सियाराममय सब जग जानी।

करऊँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।

दर्शन

वैष्णव

भक्ति

राम भक्ति

प्रमुख रचनाएं

• रामचरितमानस

• हनुमान चालीसा

• विनय पत्रिका

• दोहावली

• कवितावली

• जानकी मंगल

• पार्वती मंगल

• वैराग्य संदीपनी

• कृष्ण गीतावली

तुलसी जयंती

प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की सप्तमी तिथि

मृत्यु-तिथि

1623 ईसवी

(विक्रम संवत 1680)

मृत्यु-स्थान

काशी, उत्तर प्रदेश

तुलसीदास का जन्म कब हुआ था
Tulsidas ka Janm

   महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म ऐसे समय हुआ था। जब भारत पर मुगल आताताईयो की सत्ता थी। हमारा देश राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक गुलामी झेल रहा था। उस समय इस महान प्राचीन राष्ट्र को धर्म एवं संस्कृति के उत्थान की आवश्यकता थी। भारतवासियों के चारों तरफ घोर निराशा व अंधकार के काले बादल गिरे हुए थे।

       ऐसे समय में विक्रम संवत 1554 में, श्रवण शुक्ल सप्तमी के दिन। बांदा जिले के राजापुर गांव में सरयूपारीन ब्राह्मण आत्माराम दुबे के घर तुलसीदास जी ने जन्म लिया। उनको जन्म देने वाली माता का नाम हुलसी देवी था। जन्म के समय तुलसीदास के मुंह में पूरे 32 दांत उगे हुए थे। वे जन्म लेते समय, जरा भी नहीं रोये थे। बल्कि वे राम नाम का उच्चारण कर रहे थे।

         मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण, पिता आत्माराम दुबे और माता हुलसी देवी को यज्ञ में अनिष्ट की आशंका थी। भगवान की कृपा से, सब कुछ ठीक-ठाक रहा। नवजात बालक का नाम तुलाराम रखा गया।  वे नवजात शिशु के रूप में 12 महीने तक, मां की कोख में रहे थे। जन्म से जुड़ी सारी परिस्थितियों के कारण, इनके माता-पिता ने इनका त्याग कर दिया।

        जन्म दात्री मां के परलोक सुधार जाने के बाद, तुलसीदास के पिता का मन भी धीरे-धीरे घर गृहस्ती से उचटने लगा। उन्होंने सन्यासी बनकर, अपना गृह त्याग दिया।

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तुलसीदास का चुनिया दासी द्वारा पालन-पोषण

 वे अपने माता-पिता के घर में रहने के बजाय, चुनिया नाम की दासी के घर रहते थे। वही उनकी परवरिश और देखभाल किया करती थी। जब बाल्यावस्था पर तरस खाकर, चुनिया दासी ने इनका पालन पोषण शुरू किया। तभी इनकी मां का देहांत हो गया। तब उनके पिता आत्माराम दुबे को पूर्ण विश्वास हो गया। इनके घर पैदा होने वाला, 32 दांत वाला बालक, सचमुच इस घर के लिए अशुभ था।

       आत्माराम दुबे ने फिर कभी अपने पुत्र तुलाराम को, अपने घर लाने की आवश्यकता नहीं समझी। चुनिया नाम की दासी के घर, तुलसीदास का लालन-पालन होने लगा। अपने पूर्व जन्म कृत राम भक्ति के प्रभाव से, तुलसीदास जी के मुख से बचपन से ही राम नाम का उच्चारण होने लगा था।

  तुलसीदास अपने मुंह से राम नाम बोला करते थे। राम-राम बोलने के कारण इनको लोग रामबोला कहकर पुकारने लगे। चुनिया अति गरीब थी। इसलिए इनका बचपन घोर दरिद्रता में व्यतीत हुआ। इन सारी परिस्थितियों में भी तुलसीदास ने राम नाम कहना नहीं छोड़ा। प्रभु राम पर इन्हें पूर्ण भरोसा, आस्था और विश्वास था।

       चुनिया दासी ने बड़ी लगन और प्यार के साथ, बालक रामबोला का 5 वर्ष तक पालन पोषण करती रही। इसके बाद चुनिया ने भी शारीरिक रोग और दुर्बलता के कारण परलोक गमन किया। अब रामबोला तुलसीदास, इस दुनिया में नितांत अकेले रह गए।

तुलसीदास के गुरु कौन थे

  भगवान राम और गुरु की तलाश में, 5 वर्षीय बालक तुलसीदास घूमते-घूमते अयोध्या आ गए। वहां के गुरु नरहरिदास के आश्रम में गए। गुरु नरहरिदास ने तुलसीदास के अंदर भक्ति भाव के संस्कार देखकर, उन्हें अपना शिष्य बना लिया। नरहरिदास ने उन्हें रामायण, भागवत, गीता, पुराण आदि धर्म ग्रंथों की शिक्षा देने लगे।

        बालक तुलसीदास ने संस्कार के समय, बिना कंठस्थ किए ही गायत्री मंत्र का उच्चारण किया। यह देखकर आश्रम के सभी लोग आश्चर्य में पड़ गए। बचपन से ही संत तुलसीदास कुशाग्र बुद्धि के थे। वह जिस पाठ को एक बार पढ़ लेते। उसे कंठस्थ कर लेते थे। उसके बाद वह कभी भी नहीं भूलते थे।

       अयोध्या में अपनी प्रारंभिक पढ़ाई पूरी करके, वह वाराणसी आ गए। वहां उन्होंने संस्कृत और व्याकरण सहित, चारों वेदों और 6 वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया। साहित्य और शास्त्रों के विद्वान गुरु शेष सनातन जी से, उन्होंने हिंदी साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया। 16 वर्षों तक विद्या का अर्जन करने के बाद, वह अपने पैतृक गांव राजापुर लौट आए।

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तुलसीदास का विवाह
तुलसीदास की पत्नी का नाम

  तुलसीदास अब तक धर्मग्रंथों के अध्येता  और काव्यशास्त्र के ज्ञाता हो चुके थे। वह दोहे और चौपाई की रचना करने लगे थे। एक बार, तुलसीदास एक गांव में अपने द्वारा रचित दोहे और भगवान की कथा सुना रहे थे। वहां उपस्थित पंडित दीनबंधु पाठक भी, उनकी कथा सुन रहे थे।

      वे तुलसीदास की धर्मशीलता और विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए। कि उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावली का विवाह, तुलसीदास जी से करने का मन बना लिया। विक्रम संवत 1583 की जेष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को, तुलसीदास का विवाह रत्नावली के साथ हो गया।

     गोस्वामी तुलसीदास की धर्मपत्नी रत्नावली सुंदर, सुशील और सुलक्षणा होने के साथ-साथ, धार्मिक आस्था विश्वास वाली व गुणवती थी। तुलसीदास को अपनी पत्नी के प्रति गहरा प्रेम था। यदि उनकी पत्नी कुछ समय के लिए ही, उनकी आंखों से ओझल हो जाती। तो वह परेशान हो उठते थे।

तुलसीदास द्वारा पत्नी का त्याग

   एक बार रत्नावली अपने पिता के अस्वस्थ होने पर, मायके चली गई। उनके मायके जाने के बाद, गोस्वामी तुलसीदास चिंतित और परेशान हो उठे। जैसे-तैसे उन्होंने 2 दिन व्यतीत किए। तीसरे दिन उनको एक-एक पल काटना मुश्किल हो गया। संध्या होने पर उन्होंने तय करके लिया। आज रात ही वह अपनी ससुराल जाएंगे। कल ही सवेरा होने तक, अपनी पत्नी को साथ ले आएंगे।

      लोक-लाज के भय के कारण, वे रात्रि में चुपचाप अपने घर से निकले। रास्ते में एक नदी पड़ी। जिसमें बरसात के कारण, पानी अधिक था। उन्हें तैरना नहीं आता था। लेकिन उसी समय एक लाश, उनके पैरों से टकराई। उन्होंने उस अकड़ी हुई लाश को, लकड़ी समझा। उसका सहारा लेकर, वे नदी के दूसरे किनारे पहुंच गए।

       वे जब अपनी ससुराल पहुंचे। तो घर के सभी लोग द्वार बंद करके सो गए थे। उन्होंने सोचा, अगर मैं जोर से खटखटाऊगां। तो आसपास के लोग जाग जाएंगे। वह मुझसे तरह-तरह के प्रश्न पूछेंगे। इस संकोच के कारण, उन्होंने घर की छत से जाना उचित समझा। उसी समय एक साथ सांप छत से लटक रहा था।

       तुलसीदास जी ने अपनी पत्नी के ध्यान में, उसे एक रस्सी समझा। उसका सहारा लेकर मकान की छत पर चढ़ गए। जैसे ही उनके कूदने की आहट हुई। पत्नी रत्नावली जाग उठी। वह हैरानी से पूछने लगी। महाराज आप इस समय यहां। रत्नावली के पूछने पर उन्होंने कहा। मुझे तुम्हारी बहुत याद आ रही थी। मैं जो तुमसे प्रेम बहुत करता हूं। तुलसीदास की यह बात सुनकर, रत्नावली में व्यंग के साथ कहा –

हाड मांस की देह मम, ता पर जितनी प्रीत ।

तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मितिहि भवभिति ॥

अर्थात हाड़ मांस के मेरे शरीर से, आप जितना प्रेम करते हैं। यदि उससे आधा भी प्रेम भगवान से कर ले। तो आप भवसागर से पार हो जाएंगे। अपनी धर्मपत्नी की यह बात  गोस्वामी जी के कलेजे में तीर सी चुभ गई।

      उन्हें अपनी भूल का ज्ञान हुआ। उन्होंने हाथ जोड़कर, आंखों में आंसू भरकर रत्नावली कहा। मैं सोया हुआ था। तुमने मुझे जगा दिया। आज से तुम मेरी पत्नी नहीं, मेरी गुरु हो। अब मैं भगवान का दर्शन करके ही रहूंगा। अन्यथा उनका नाम लेते-लेते अपना जीवन व्यतीत कर दूंगा।

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तुलसीदास को हनुमान जी के दर्शन

 तुलसीदास जी गृह त्याग के बाद, प्रयाग पहुंचे। जहां वे एक संत की तरह, प्रभु राम की कथा सुनाने लगे। यहां पर कुछ वर्ष रहकर, उन्होंने संपूर्ण भारत की यात्रा की। जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारका व बद्रीनाथ आदि तीर्थ स्थल का भ्रमण किया। जिससे उनके ज्ञान, भक्ति, वैराग्य व दीक्षा में वृद्धि हुई।

     वे हर जगह प्रभु राम की कथा व उनके गुणों का गान करते। वे 14 वर्षों तक तीर्थाटन करते रहे। गोसाई जी नित्य शौच के लिए, गंगा पार जाते थे। लौटते समय लोटे का बचा जल, एक पेड़ की जड़ में डाल देते। उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था। जल से तृप्त होकर, वह प्रेत गोसाई जी के सामने प्रगट होकर बोला। तुम मुझसे कुछ वर मांगो। गोसाई जी ने श्री राम के दर्शन की लालसा प्रकट की।

  प्रेत ने कहा पास के मंदिर में नित्य सायंकाल, रामायण की कथा होती है। वहां कोड़ी के भेष में हनुमान जी कथा सुनने आते हैं। गोस्वामी जी ने कहा, लेकिन मैं उन्हें पहचानूँगा कैसे। प्रेत ने कहा, वह सबसे पहले आते हैं। सबसे अंत में जाते हैं। तुम उनको ही पकड़ लेना। वे ही प्रभु राम से मिलवा देंगे।

       तुलसीदास जी ने ऐसा ही किया। वे कथा प्रारंभ होने के काफी पहले ही, मंदिर में पहुंच गए। उन्होंने कथा में सबसे पहले आने वाले, एक वृद्ध गरीब व्यक्ति को पहचान लिया। वे समझ गए कि यहीं हनुमान जी है। जब कथा के बाद, सभी लोग अपने घरों के लिए चल दिए।

       तब वह व्यक्ति भी मंदिर व कथा स्थल को प्रणाम करता हुआ, जाने लगा। तुलसीदास ने आगे बढ़कर, उनके चरण पकड़ लिए। फिर जोर-जोर से रोने लगे। अन्ततः हनुमान जी ने प्रसन्न होकर, मुस्कुराते हुए कहा। तुम चित्रकूट जाओ। वहां तुम्हें प्रभु राम के दर्शन होंगे।

तुलसीदास को प्रभु श्रीराम के दर्शन

   हनुमान जी के आदेशानुसार, तुलसीदास जी चित्रकूट आ गए। वे वहां इधर-उधर, सब जगह भगवान राम की तलाश करने लगे। एक दिन वह प्रभु राम की खोज में, वन में भटक रहे थे। तभी वहां दो सुंदर राजकुमार हाथों में धनुष लिए, एक हिरण का पीछा करते हुए आये। उनमें से एक राजकुमार गोरे रंग का था। एक सांवले रंग का था।

        तुलसीदास जी इन दोनों का रूप देखकर, मोहित हो गए। जब दोनों राजकुमार हिरण का पीछा करते हुए। उनके सामने से गुजर गए। तब हनुमान जी गोसाई जी के सामने आ गए। वह मुस्कुराते हुए पूछने लगे। तुमने कुछ देखा। तुलसीदास ने कहा हां, दो सुंदर राजकुमार इसी राह से घोड़े पर गए हैं। हनुमान जी ने हंसते हुए कहा यही तो प्रभु राम और लक्ष्मण थे।

     हनुमान जी की बात से, तुलसीदास आवाक रह गए। इसके बाद उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही। उन्होंने हनुमान जी को प्रणाम करके कहा। आपके आशीष से, आज मुझे अनायास मेरे प्रभु के दर्शन हो गए। जब तुलसीदास विक्रम संवत की मोनी अमावस्या के दिन, चित्रकूट के अस्सी घाट पर बैठकर चंदन घिस रहे थे।

      तभी भगवान श्रीराम उनके सामने आए। वे गोस्वामी जी से चंदन मांगने लगे। जैसे ही तुलसीदास ने नजर उठाकर, प्रभु राम को देखा। तब वे उनकी रूप राशि देखकर, मंत्र मुग्ध हो उठे। वे श्रीराम की ओर टकटकी बांधकर देखने लगे। उनकी सारी सुध-बुध खो गई। वे श्रीराम को तिलक लगाना भूल गए। तब भगवान राम ने स्वयं अपने माथे पर चंदन लेकर, गोस्वामी तुलसीदास और अपने माथे पर तिलक लगाया।

चित्रकूट के घाट पे, भई संतन की भीर।

तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक करें रघूबीर।।

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रामचरितमानस
तुलसीदास द्वारा महाकाव्य की रचना

   हनुमान जी की आज्ञा व प्रेरणा से संवत  1631 चैत्र मास की रामनवमी मंगलवार के दिन। चित्रकूट के अस्सी घाट पर स्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस महाकाव्य रामचरितमानस लिखना आरंभ किया। इस महान ग्रंथ को 2 वर्ष 7 महीने और 26 दिन में लिखकर संपूर्ण किया।

      रामचरितमानस की रचना करने के बाद, महाकवि तुलसीदास वाराणसी आए। उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर में, भगवान शिव और माता पार्वती को रामचरितमानस सुनाई। काशी के विद्वानों ने तुलसीदास के रामचरितमानस की बहुत अधिक आलोचना और अनेक टिप्पणियां की। एक बार विश्वनाथ जी के मंदिर में, अनेक धर्म ग्रंथों के साथ तुलसीकृत रामचरितमानस की पांडुलिपि को भी रख दिया गया।

     यह देखने के लिए कि तुलसी के ग्रंथ के विषय में भगवान विश्वनाथ क्या निर्णय लेते हैं। अगले दिन जब मंदिर का द्वार खोला गया। तो तुलसीकृत रामचरितमानस को सभी ग्रंथों के ऊपर रखा पाया गया। इस पांडुलिपि पर स्वयं भगवान विश्वनाथ के हस्ताक्षर देखकर, सभी हैरान रह गए। भगवान की कृपा देखकर, गोस्वामी जी ने काशी के विद्वानों से कहा।

“का भाषा, का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच।

काम जो आवै कामरी, का लै करै कमाच ॥”

तुलसीदास के आगे अकबर नतमस्तक

  एक बार एक औरत, अपने पति के मृत शरीर लेकर, गोस्वामी तुलसीदास जी के पास आई। वह रो-रोकर उनसे प्रार्थना करने लगी। आप तो भगवान के अनन्य उपासक हैं। आप भगवान से कहे कि वह मेरे पति को जीवित कर दें। स्त्री की करुण पुकार को सुनकर, गोस्वामी जी अपने प्रभु का ध्यान लगाया।

        उस स्त्री का पति वास्तव में, जीवित हो उठा। यह खबर जब अकबर के पास पहुंची। तो उसने गोस्वामी जी को, अपने दरबार में बुलाया। तुलसीदास से कहा, कुछ करामात करके दिखाओ। इस पर गोस्वामी जी ने कहा। मैं राम नाम के अलावा कोई करामात नहीं जानता। तब अकबर ने नाराज होकर, उन्हें कैद खाने में डाल दिया।

       तुलसीदास से कहा कि जब तक तुम कोई करामात नहीं दिखाओगे। तुम यहां से छूटकर नहीं जा पाओगे। तब तुलसीदास जी ने भगवान हनुमान की स्तुति की। तो हनुमान जी ने तुलसीदास की सहायता के लिए, वानरों की सेना भेज दी। बंदरों ने बादशाह के किले में पहुंचकर, तहस-नहस करना शुरू कर दिया।

जब यह बात बादशाह को पता चली। तो वह परेशान हो गए। उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास जी को सच्चा भक्त मानकर, उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगी।

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तुलसीदास की प्रमुख रचनाएँ
Tulsidas ki Rachnaye

Tulsidas ki Rachnaye

रामचरितमानस

वैराग्य-संदीपनी

पार्वती-मंगल

बरवै रामायण

रामललानहछू

जानकी-मंगल

दोहावली

रामाज्ञाप्रश्न

कृष्ण गीतावली

कवितावली

विनय पत्रिका

हनुमान चालीसा

गीतावली

सतसई

रामाज्ञाप्रश्न

तुलसीदास की काव्यगत विशेषताएँ

काव्यगत विशेषताएँ

भाव-पक्ष

भक्ति-भावना

राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि। ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को मानने वाले।

समन्वयवादी दृष्टिकोण

आराध्य राम, लेकिन सभी देवी देवताओं की स्तुति।

लोकरंजक काव्य सृजन

सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय से युक्त

प्रेम की अनन्यता

चातक प्रेम के आदर्श को अपनाया

रस-निरूपण

सभी रसों में रचनाएं की। शालीनता से प्रेम व श्रंगार का वर्णन

कला-पक्ष

भाषा

ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार। फारसी और अरबी शब्दों का उपयोग।

छंद-योजना

दोहा, चौपाई, सोरठा, हरिगीतिका, बरवै, कवित्त, सवैया आदि छंदों का सफल प्रयोग।

शैली

•दोहा-चौपाई की प्रबंधात्मक शैली

• कथात्मक शैली

• गीति मुक्तक शैली

• मुक्तक शैली

अलंकार योजना

अलंकारों के प्रयोग में सिद्धहस्त। अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, उपमा रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, अतिशयोक्ति, विभावता, विशेषोक्ति अलंकारों का स्वभाविक व चमत्कारपूर्ण प्रयोग।

तुलसीदास की मृत्यु

संवत 1680 की श्रावण शुक्ल सप्तमी दिन शनिवार को गोस्वामी तुलसीदास जी ने काशी के अस्सी घाट पर राम-राम का उच्चारण करते हुए अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया।

संवत् सोलह सौ असी,असी गंग के तीर ।

श्रावण शुक्ला सप्तमी,तुलसी तज्यो शरीर।।

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तुलसीदास के दोहे और अर्थ
Tulsidas ke Dohe

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।

जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।।

व्याख्या – राम का नाम कल्पतरू अर्थात मनचाहा पदार्थ देने वाला और कल्याण का निवास यानी मुक्ति का घर है। जिसको स्मरण करने से भांग सा तुलसीदास भी, तुलसी के समान पवित्र हो गया।

तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।

सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥

व्याख्या – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुंदर मोर को ही देख लो। उसका वचन तो अमृत के समान है। लेकिन आहार सांप का होता है।

मुखिया मुख सों चाहिए, खान पान को एक।

पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥

व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए। जो खाने-पीने को तो अकेला है। लेकिन विवेक पूर्वक सब अंगों का पालन पोषण करता है।

तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ।।

व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि मीठी वाणी बोलने से चारों ओर सुख का प्रकाश फैलता है। मीठी बोली से किसी को भी अपने ओर सम्मोहित किया जा सकता है। इसलिए सभी मनुष्य को कठोर और तीखी वाणी छोड़कर, सदैव मीठी वाणी ही बोलना चाहिए।

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥

जाकर ‍चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥

व्याख्या – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे मित्र जो कि आपके सामने बना बनाकर मीठा बोलते हैं। और मन ही मन आपके लिए बुराई का भाव रखते हैं। जिनका मन सांप के चाल के समान टेढ़ा हो। ऐसे खराब मित्र का त्याग कर देने में ही भलाई है।

FAQ :

प्र०  तुलसीदास का जन्म कब हुआ था ?

उ० तुलसीदास का जन्म विक्रम संवत 1554 में, श्रवण शुक्ल सप्तमी के दिन हुआ था।

प्र० तुलसीदास का पूरा नाम क्या है?

उ०  तुलसीदास का पूरा नाम संत गोस्वामी तुलसीदास है।

प्र० तुलसीदास के गुरु कौन थे?

उ० तुलसीदास के गुरु नरहरिदास ने उन्हें रामायण, भागवत, गीता, पुराण आदि धर्म ग्रंथों की शिक्षा दी। जबकि काशी में गुरु शेष सनातन जी से, उन्होंने हिंदी साहित्य और दर्शन की शिक्षा प्राप्त की।

प्र० तुलसीदास की पत्नी का नाम क्या था ?

उ० तुलसीदास जी की पत्नी का नाम रत्नावली था।

प्र० तुलसीदास के दीक्षा गुरु कौन थे?

उ० गोस्वामी तुलसीदास के दीक्षा गुरु संत नरहरिदास थे।

प्र० तुलसीदास जी का जन्म किस गाँव में हुआ?

उ० तुलसीदास का जन्म बांदा जिले के राजापुर गांव में हुआ।

प्र० रामचरितमानस के रचयिता कौन है ?

उ० रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी है ।

प्र० तुलसीदास की मृत्यु कब हुई ?

उ० तुलसीदास की मृत्यु संवत 1680 की श्रावण शुक्ल सप्तमी दिन शनिवार को काशी के अस्सी घाट पर हुई ।

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