8 chiranjeevi | कल्कि अवतार – प्रतीक्षा में आठ चिरंजीवी | 8 immortals 

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8 chiranjeevi

8 chiranjeevi
अष्ट चिरंजीवी श्लोक

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।

कृपः परशुरामश्चैव सप्तैते चिरंजीविनः॥

सप्तैतान् स्मरेन्नित्यम् मार्कंडेयम् तथाष्टमम्।

जीवेद्‌वर्षशतं सोऽपि सर्वव्याधिविवर्जितः॥

अश्वत्थामा, राजा बलि, वेदव्यास, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम। यह सात चिरंजीवी हैं। इन सातों के अलावा आठवें मार्कंडेय ऋषि का जो भी नित्य स्मरण करता है। वह व्यक्ति स्वस्थ रहता है और दीर्घायु को प्राप्त करता है।

प्राचीन काल से लेकर अब तक, मनुष्य अमर होने की खोज में लगा है। लेकिन शायद ही किसी इंसान ने सफलता प्राप्त की होगी। लेकिन यह भी संभव है। अगर कोई इसमें सफल भी हो गया होगा। तो शायद ही वह व्यक्ति, इस ज्ञान को जगजाहिर करेगा।

क्योंकि इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाला, प्रत्येक प्राणी अमर हो जाएगा। तो बहुत ही जल्द, इस सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगेगा। यह भी संभव है कि हमारी यह पृथ्वी रहने योग्य ही नहीं बचेगी। वहीं अगर हम हिंदू शास्त्रों पर प्रकाश डालते हैं।

तो इसमें 7 ऐसे चरित्र देखने को मिलते हैं। जिन्होंने अपने जीवन काल में मृत्यु पर विजय कर ली थी। जिसके कारण वे चिरंजीवी हो गए थे। इस धरती पर कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, आज भी विचरण कर रहे हैं।

हमारे सनातनी धर्मग्रंथों में सात चिरंजीवीयों का वर्णन मिलता है। उनके सभी के इतिहास के बारे में, तो अधिकतर लोग जानते हैं। लेकिन फिर भी हम सभी में, यह जिज्ञासा जरूर होती है। अगर वह सब चिरंजीवी है। तो कलयुग में भी अवश्य होंगे। लेकिन कलयुग में वह कहां निवास कर रहे हैं। इस विषय में सभी को जानने की उत्सुकता होती है। इसी प्रकार जाने : कल्कि अवतार का रहस्यकल्कि अवतार की कथा। Kalki Puran की सम्पूर्ण जानकारी।

8 chiranjeevi
चिरंजीवी और अमरता में अंतर

क्या चिरंजीवी होना, अमर होना है। या चिरंजीवी होने और अमर होने में बहुत फर्क है। आप जानेंगे चिरंजीवी और अमर होने में क्या फर्क है। चिरंजीवी होना, अमर होना नहीं होता है।

अमरता क्या है – आमतौर पर शास्त्रों व ग्रंथों के अनुसार, अमरता का संबंध अमृत पान से होता है। जिसने अमृत का पान किया होता है। वह अमर होता है। जैसे समुद्र मंथन के बाद, देवताओं ने अमृत का पान किया था। इसलिए वह अमर हो गए।

इसके अतिरिक्त राहु राक्षस ने भी अमृत का पान किया था। जो सिंगिका राक्षसी का पुत्र था। उसके शरीर के दो भाग राहु और केतु हो गए। यह दोनों भी अमृत पान करने की वजह से, अमर हो गए। लेकिन ब्रह्मा, विष्णु और महेश में, भगवान शिव के पास वह शक्ति है।

वह किसी को भी अमरता प्रदान कर सकते हैं। भगवान विष्णु के पास भी वह शक्ति है कि वह किसी को भी अमरता प्रदान कर सकते हैं। लेकिन ब्रह्मा जी के पास, यह शक्ति नहीं है। इसीलिए ब्रह्मा जी की तपस्या करने के बाद, जब भी कोई राक्षस वरदान मांगता था। तो ब्रह्मा जी यही कहते थे कि अमरता के अलावा, कोई भी वरदान मांग लो।

इसी क्रम में रावण ने ब्रह्मा जी से यह वरदान मांगा था कि मुझे न तो देवता, न दानव, न दैत्य, न राक्षस, न सर्प, न गंधर्व। कोई भी नही मार सके। लेकिन वह नर या मनुष्यों के बारे में कहना भूल गया था। इसीलिए भगवान विष्णु ने मनुष्य रूप में, श्री राम के रूप में अवतार लिया। फिर रावण का वध कर दिया। ऐसा ही हिरण्यकश्यप के साथ भी हुआ था।

बिना अमृत पिए भी भगवान शिव और भगवान विष्णु की पूजा करके। उनकी कृपा पाकर, लोग अमर हो सकते हैं। भगवान शिव ने राक्षस सुकेतु को अमरता का वरदान दिया। इसके अलावा उनके वाहन नंदी व नागराज वासुकी को भी अमरता का वरदान मिला। भगवान विष्णु ने भी वाहन गरुण व शेषनाग को अमरता का वरदान दिया है।

चिरंजीवी किसे कहते हैं – चिरंजीवी का मतलब होता है। जो लंबे समय तक जिए। जो एक युग से ज्यादा समय तक जीवित रहे। उसे चिरंजीवी कहा जाता है। जो एक युग में ही बहुत लंबे समय तक जीवित रहे। उसे दीर्घायु कहा जाता है।

अष्ट चिरंजीवी की चर्चा सबसे ज्यादा होती है। लेकिन इसके अतिरिक्त भी बहुत से चिरंजीवी हुए। जैसे बाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में दो और वानर विविध और महेंद्र थे। जिन्हें भगवान श्रीराम ने चिरंजीवी होने का वरदान दिया था। बाद में उनका वध भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं किया था।

इस तरह उन्होंने एक युग पार कर लिया था। वह त्रेता से द्वापर युग में थे। इसलिए वह भी चिरंजीवी कहे जाते हैं। जामवंत में चिरंजीवी थे। वह भी सतयुग से लेकर द्वापर युग तक रहे थे। इसके बाद उन्होंने भी मोक्ष प्राप्त किया था। महाभारत में भी एक चिरंजीवी इंद्रद्युम्न का वर्णन मिलता है। राजा इंद्रद्युम्न को संसार का सबसे पुराना चिरंजीवी कहा गया है। इसी प्रकार जाने : Sanatan Dharm me Vivah Ke Prakarहिंदू विवाह के 8 प्रकार व उद्देश्य।

8 Chiranjeevi Name
8 चिरंजीवी के नाम

 

प्राचीन भारतीय इतिहास और पुराणों के अनुसार, 8 ऐसे व्यक्ति हैं। जो चिरंजीवी हैं। लाखों-करोड़ों वर्ष से वे वैदिक संस्कृति व धर्म की रक्षा कर रहे हैं। दरअसल चिरंजीवी शब्द, संस्कृत के 2 शब्दों का मेल है। जिसमें चिरं का अर्थ अंतहीन है। जीवि का अर्थ जीवन है।

अर्थात चिरंजीवी का अर्थ, कुछ हद तक अमृत्व के समान है। लेकिन यह पूर्ण अमरता नहीं है। अतः चिरंजीवी का अर्थ एक निश्चित समय तक जीवित रहना है। विशेष रुप से चिरंजीवी जन्मजात मानव होते हैं। वे वरदान या श्राप के कारण चिरंजीवी बन गए। जानते हैं इन 8 चिरंजीवीओं के बारे में –

8 Chiranjeevi
ऋषि मार्कण्डेय

ऋषि मार्कण्डेय बाल्यावस्था से ही भगवान शिव के परम भक्त हो गए थे। इन्होंने शिव जी को तप कर प्रसन्न किया था। जब यमराज जी इनके प्राण लेने आए। तो भगवान शिव ने यम को रोक दिया। महामृत्युंजय मंत्र सिद्धि के कारण, ऋषि मार्कण्डेय चिरंजीवी बन गए।

भागवत पुराण की एक कथा बताती है। एक बार ऋषि नर-नारायण मार्कण्डेय से मिलने गए। उनसे प्रसन्न होकर, उन्हें एक वरदान मांगने के लिए कहा। मार्कण्डेय ने ऋषि नर नारायण से प्रार्थना की। उन्हें अपनी मायावी शक्ति व माया दिखाने के लिए। क्योंकि ऋषि नर नारायण भगवान विष्णु के अवतार थे।

उनकी इच्छा पूरी करने के लिए, भगवान विष्णु एक विशाल बरगद के पत्ते पर, एक शिशु के रूप में प्रकट हुए। पूरा इलाका पानी के तेज बहाव से भर रहा था। श्री विष्णु ने ऋषि मार्कंडेय को दिखाया कि वही सृजन, संरक्षण,  समय और विनाश का कारण है। इसके बाद भगवान विष्णु के शिशु रूप ने, एक विशाल आकृति धारण की।

बढ़ते पानी से खुद को बचाने के लिए, ऋषि मार्कंडेय ने भगवान विष्णु के मुंह में प्रवेश किया। उस शिशु रूपी विष्णु के पेट के अंदर, मार्कंडेय ने सभी लोकों, सात महाद्वीपों और सात समुद्रों को देखा। पहाड़, जीव-जंतु सभी वही थे। मारकंडे को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

वे श्रीविष्णु से प्रार्थना करने लगे। ऋषि ने भगवान श्रीविष्णु के पेट में 1000 साल बिताए थे। उन्होंने इस दौरान बाला मुकुंदष्टकम की रचना की। ऋषि मार्कंडेय का उल्लेख महाभारत और कई अन्य पुराणों में मिलता है। इसी प्रकार जाने : भगवान विष्णु की उत्पत्ति का रहस्यMystery of God Vishnu।

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असुर सम्राट राजा बलि

राजा बली असुर सम्राट विरोचन के पुत्र और महात्मा प्रह्लाद के पौत्र हैं। उनकी राजधानी महाबलीपुरम थी। समुद्र मंथन के दौरान, असुरों को अमृत से वंचित रखने के लिए। देवताओं द्वारा छल किया गया था। जिसके बाद सम्राट बलि ने, देवताओं के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।

इंद्र द्वारा वज्रपात होने पर, असुर सम्राट बली ने शुक्राचार्य के संजीवनी मंत्र से पुनः जीवन प्राप्त किया था। तब उन्होंने विश्वजीत और अश्वमेध यज्ञ का संपादन कर, समस्त स्वर्ग पर अधिकार जमा लिया। देवतागण सहायता हेतु, भगवान विष्णु के पास गए। श्रीविष्णु ने युद्ध में शामिल होने और अपने भक्त बलि को मारने से इंकार कर दिया।

लेकिन उन्होंने आश्वासन दिया कि वे स्वर्ग की रक्षा करेंगे। स्वर्ग देवताओं को वापस देंगे। जब सम्राट बली अंतिम अश्वमेध यज्ञ का समापन करने ही वाले थे। तब दान के लिए वामन रूप में, भगवान विष्णु उपस्थित हुए। शुक्राचार्य के सावधान करने पर भी, बली दान से विमुख नहीं हुए।

वामन ने दान के रुप में, तीन पग भूमि मांगी। बलि के प्रतिज्ञा लेने के बाद, वामन ने विशाल का रूप धारण किया। एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में धरती नापी। बलि ने महसूस किया कि वामन कोई और नहीं। बल्कि स्वयं श्रीविष्णु है। फिर तीसरे पग के लिए, अपना मस्तक आगे किया। अपना सारा राज्य खो देने के बाद, बलि को कहीं और जाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

मस्तक पर श्री विष्णु के चरण कमल स्पर्श होते ही बली अमर हो गए। बलि की दयालुता और उदारता से प्रभावित होकर। श्री विष्णु ने उन्हें अगले मन्वंतर के लिए, इंद्र होने का वरदान दिया। तब तक वह पाताल लोक में निवास करेंगे। प्रत्येक वर्ष में केवल 1 दिन के लिए पृथ्वी पर आ सकते हैं। केरल में इस दिन को ओणम के रूप में मनाया जाता है।

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भगवान परशुराम

महर्षि जमदग्नि के पुत्र के रूप में जन्मे, परशुराम ने एक क्षत्रिय के धर्म को अपनाया। एक ब्राह्मण योद्धा के रूप में, 21 बार पृथ्वी से क्षत्रियों का संघहार किया। परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं। सभी अस्त्र कला, शास्त्रों और दिव्य अस्त्रों के स्वामी, स्वयं महादेव ने उनको शिक्षा दी थी।

उनके अंदर कई गुण देखे जा सकते हैं। जिसमें आक्रामकता, युद्ध कौशल और वीरता शामिल है। इसके अलावा वे शांत, विवेकपूर्ण और धैर्यवान भी हैं। कल्कि पुराण में उल्लेख किया गया है। वह कलयुग के अंत में, श्री विष्णु के अन्तिम अवतार कल्कि को शिक्षा देंगे।

कैसे तपस्या से दिव्य अस्त्रों को प्राप्त किया जाता है। उन अस्त्रों को कैसे प्रयोग किया जाता है। यह दिव्य अस्त्र अंत समय में, मानव जाति को बचाने के लिए आवश्यक होंगे। पुराण के अनुसार, वे अभी मेरु पर्वत के शिखर पर कठोर साधना में लीन है। भगवान परशुराम आने वाले मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक हैं। इसी प्रकार जाने : जन्म से मृत्यु तक के सोलह संस्कार

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राम भक्त श्री हनुमान

रामभक्त श्री हनुमान को वास्तव में, किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। वे भक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण है। उनका बल, रूप और ज्ञान ही उनकी विशेषता है। हनुमान जी रामायण के केंद्रीय पात्रों में से एक हैं। वह ब्रह्मचारी एवं चिरंजीवी में से एक हैं।

अंजना और वानर राज केशरी के पुत्र, भगवान शिव के 11वें रुद्र अवतार हैं। ऐसा कहा जाता है कि जब रामायण के अन्य पात्र मोक्ष के लिए व्याकुल थे। तब हनुमान जी ने श्रीराम से निवेदन किया। कि जब तक भगवान श्रीराम लोगों के द्वारा वंदित होंगे। तब तक वे पृथ्वी पर रहेंगे।

जहां कहीं भी दैनिक श्रीराम का नाम लिया जाता है। वही वह निवास करेंगे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर, श्रीराम उन्हें वरदान देते हैं। कि वह कलयुग के अंत तक पृथ्वी पर रहें। साथ ही श्रीहरि के भक्तों की रक्षा करें। जो कोई भी हनुमान जी की महिमा का वर्णन करेगा। उसके जीवन से समस्त दुख और बाधा दूर हो जाएगी।

यह भी कहा जाता है कि राम कथा के दौरान, जो सबसे पहले पहुंचते हैं। सबसे आखिर में निकलते हैं। वह कोई और नहीं, बल्कि चिरंजीवी हनुमान जी होते हैं। 1998 के जून महीने में हुए। कैलाश मानसरोवर यात्रा के बारे में, एक दिलचस्प घटना है। यात्रा के दौरान एक तीर्थयात्री को गुफा में अद्भुत प्रकाश दिखाई देता है।

कौतुहल वश उसने गुफा के पास जाकर, एक छवि ले ली। उसके कुछ समय बाद ही, असामान्य कारणों से उसकी मृत्यु हो गई। जब उस छवि को विकसित किया गया। तो देखा कि छवि में एक वानर वेदों का अध्ययन करता हुआ दिख रहा है। कई लोगों की मान्यता है कि इस छवि में जो वानर है। वह कोई और नहीं, बल्कि चिरंजीवी हनुमान जी हैं।

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विभीषण

लंकापति रावण के सबसे छोटे भाई विभीषण थे। जो ऋषि विश्रवा और कैकसी के सबसे छोटे पुत्र थे। ऋषि पुलस्त्य जी के पौत्र थे। उनकी अर्धांगिनी सरमा, एक गंधर्व कन्या थी। विभीषण जी ने श्रीराम की ओर से, लंका युद्ध में भाग लिया था। विभीषण जी के पास सात्विक मनोहर ह्रदय था।

बचपन से ही उन्होंने अपना सारा समय, प्रभु के नाम पर ध्यान लगाकर बिताया। उन्होंने रावण और कुंभकरण सहित, ब्रह्मदेव की साधना की थी। आखिरकार ब्रह्मदेव ने उन्हें दर्शन देकर, कोई वरदान मांगने को कहा।  विभीषण ने प्रार्थना की। अपने मन को प्रभु के चरण कमल में स्थिर रख सकूं। वह ऐसा वरदान दें।

यह प्रार्थना तब पूरी हुई। जब उन्होंने अपने धन और परिवार को त्यागकर, भगवान श्रीराम से आकर मिले। जो भगवान श्री विष्णु के अवतार थे। लंका युद्ध में विभीषण का ज्ञान, श्रीराम के लिए अमूल्य साबित हुआ था। जब भगवान श्रीराम अपने शासनकाल के अंत में अयोध्या छोड़ने वाले थे।

तब श्रीराम ने श्रीहरि विष्णु के मूल स्वरूप में आकर, विभीषण जी को आदेश दिया। कि वे धरती पर कलयुग के अंत तक रहेंगे। वे सभी राक्षसों और मानवों को सत्य और धर्म के मार्ग पर अग्रसर करें। इसीलिए विभीषण जी को आज 8 चिरंजीवों में से एक माना जाता है। इसी प्रकार जाने : Vedas In Hindi | 4 Vedas Name | चारों वेदों के रचयिता कौन है – महत्व।

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ब्रह्म ऋषि व्यास

श्री व्यास देव ने महाकाव्य महाभारत की रचना की थी। यह विद्या और ज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे ऋषि पराशर के पुत्र और ऋषि वशिष्ठ के पौत्र हैं। उनका जन्म यमुना नदी के द्वीप पर हुआ था। श्याम वर्ण होने के कारण, उनका जन्म नाम कृष्ण वैपायन रखा गया। वह त्रेतायुग के लगभग आखिरी में जन्मे थे।

उन्होंने अपने ज्ञान प्रकाश से, उस युग को संचालित किया था। आज भी गुरु पूर्णिमा का त्योहार, उन्हें समर्पित किया जाता है। इसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह दिन उनकी जन्मतिथि है।

इसी दिन उन्होंने वेदों का संकलन व संपादन किया था। जिससे उनका नाम ऋषि वैपायन वेदव्यास हुआ। कहा जाता है कि खुद 18 पुराण सहित, महाभारत, भागवत और वेदांत आदि की रचना व संपादन किया था। श्रावणी मन्वंतर में भगवान परशुराम सहित ऋषि व्यास सप्त ऋषि के पद पर नियुक्त होंगे।

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कृपाचार्य

 कृपाचार्य ब्रह्मदेव के चौथे अवतार हैं। कृपाचार्य महाभारत के एक महत्वपूर्ण पात्र भी हैं। यह 8 चिरंजीवी में से एक हैं। वह ऋषि शरद्वान्‌ के पुत्र और महर्षि गौतम के पौत्र हैं। वह ऋषि आंगिरस के वंशज भी हैं। कृत एवं उनकी जुड़वा बहन कृति को, महाराज शांतनु ने गोद लिया था।

बाद में कृत हस्तिनापुर के एक विद्वान आचार्य बने। तब उन्हें कृपाचार्य कहा जाने लगा। कृत महाभारत के अनुसार, पांडवों और कौरवों के कुलगुरु थे। भगवान कृष्ण द्वारा आशीर्वाद के माध्यम से, कृपाचार्य ने अमरता प्राप्त की थी। महाभारत के उद्योग पर्व में भीष्म ने एक पराक्रमी योद्धा घोषित किया था।

वह 60000 योद्धा व 12000 रथी श्रेणी के योद्धाओं से, एक साथ लड़ने में सक्षम है। अस्त्रों और सभी प्रकार के युद्ध कौशल में उनको महारत हासिल है। कृपाचार्य को द्रोणाचार्य से भी उत्तम गुरु माना जाता है। क्योंकि कृपाचार्य ने सत्य, धार्मिकता और निष्पक्षता जैसे महान गुणों का भी प्रदर्शन किया था।

अत्यधिक तनावपूर्ण परिस्थितियों में भी, उन्होंने अपने धर्म का त्याग नहीं किया। इस कारण से, कृपाचार्य को महाभारत का एक महान चरित्र कहा जाने लगा। श्रावणी मन्वंतर में भगवान परशुराम व ब्रह्मऋषि व्यास के साथ वे भी सप्तऋषि बनेंगे। इसी प्रकार जाने : स्वास्तिक चिन्ह। स्वास्तिक का महत्व।स्वस्ति का अर्थ। स्वास्तिक चिन्ह कैसे बनाएं।

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अश्वत्थामा

अश्वत्थामा गुरु द्रोण के पुत्र तथा ऋषि भरद्वाज के पौत्र हैं। महाभारत के अनुसार, अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम एवं भगवान शंकर के सम्मिलित अंशावतार हैं। दिलचस्प बात यह है कि जन्म से ही अश्वत्थामा के कपाल में, एक दिव्यमणि हुआ करती थी। जिसका नाम शिरोमणि रत्न है। इस देवमणि के कारण, उन्हें भूख, प्यास, थकान व अन्य मानवीय सीमाओं को लाँघने की क्षमता मिली थी।

 वे जन्म से ही चिरंजीवी है। अश्वत्थामा ने कौरवों के पक्ष से, पांडवों के विरुद्ध युद्ध किया था। अश्वत्थामा को कुरुक्षेत्र में कौरवों की ओर से अंतिम सेनापति के रूप में नियुक्त किया गया था। अश्वत्थामा एक महारथी हैं। उन्हें अनेक दिव्य अस्त्र प्राप्त हैं। वह 12 आदिरथी व 7,20,000 योद्धाओं के साथ युद्ध करने में सक्षम है।

अश्वत्थामा ने निद्राधिन धृष्टद्युम्न और पांडवों को समझ के, द्रोपदी के पांच पुत्रों की हत्या कर दी। हत्या के पश्चात, वह प्रायश्चित करने महर्षि वेदव्यास के पास पहुंचे। जब उन्हें पता चला कि पांडव जीवित हैं। पांडवों की जगह, उन्होंने द्रौपदी के पुत्रों की हत्या कर दी है। तब दुर्योधन को दिया हुआ वचन पूरा करने हेतु। अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र रोपण किया।

यह देखकर श्री कृष्ण ने भी अर्जुन को ब्रह्मास्त्र रोपण करने का आदेश दिया। लेकिन महर्षि व्यास ने दो घातक अस्त्रों को टकराने से रोक लिया। वे जानते थे कि ब्रह्मांड के लिए, यह कितना विनाशकारी होगा। इसलिए ऋषि व्यास में अर्जुन और अश्वत्थामा को, अपने अस्त्र निष्क्रमण के लिए कहा। अर्जुन ने तो अस्त्र निष्क्रमण कर लिया।

लेकिन अश्वत्थामा को अस्त्र निष्क्रमण करने की विधि का ज्ञान नहीं था। इसीलिए उन्होंने जानबूझकर, इसे उत्तरा के गर्भ की ओर निर्देशित किया था। जिसके गर्भ में अभिमन्यु का पुत्र था। उन्होंने यह पांडव वंश को नष्ट करने के लिए किया था। लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने, उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को, पुनः जीवनदान दिया। इसी तरह अश्वत्थामा का शेष प्रयास भी विफल हो गया।

अश्वत्थामा के द्वारा किए गए पापों के लिए, श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को अपने माथे से मणि को निकालने का आदेश दिया। श्रीकृष्ण ने श्राप दिया कि जिस जगह वह मणि थी। उस जगह घाव होगा। जो सदा दुखता और रिसता रहेगा। यह घाव उसके द्वारा किए गए, पापों को हमेशा याद दिलाता रहेगा। कलयुग के अंत तक वे प्रेम, दया और मन की शांति की तलाश में इधर-उधर भटकता रहेगा।

यह श्राप मृत्यु से भी अधिक घातक सिद्ध हुआ। क्योंकि अश्वत्थामा जानते थे कि वह अमर हैं। कलयुग के अंत तक, उन्हें अपने पापों का बोझ ढोना पड़ेगा। जब भगवान कल्कि कलयुग के अंत में अवतरित होंगे। तब वे अश्वत्थामा को, इस श्राप से मुक्त करगे। तब वे भी मन्वंतर के सप्त ऋषि बनेंगे।

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