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वीर सावरकर की जीवनी - वीर सावरकर की माफी का सच
“कर्तव्य की निष्ठा, संकट को झेलने में, दुख उठाने में और जीवन भर संघर्ष करने में ही समाविष्ट है। यश अपयश तो मात्र योग्य अयोग्य होने की बातें है।” यह कहना विनायक दामोदर सावरकर का था। आजादी के बाद से ही, सावरकर को लेकर देशभर में बहस जारी है। कुछ लोग इन्हें हीरो मानते हैं। तो वहीं कुछ लोग विलन मानते हैं।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में, कई ऐसे महान व्यक्तित्व हुए। जिन्होंने अपने विचारों और देशभक्ति से, स्वतंत्रता की एक नई अलख जगाई। ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व वीर सावरकर थे। जिन्होंने अपने विचार, साहित्य और लेखन से क्रांति का बिगुल फूंक दिया। इनके विचारों से डरकर, अंग्रेजी हुकूमत ने इन पर, न केवल बेइंतहा जुर्म किये। बल्कि उन्हें काला पानी भेजते हुए, 2 जन्मों का आजीवन कारावास भी सुनाया।
लेकिन इन सबसे बिना डरे, सावरकर देश की आजादी के लिए, भारतवासियों को एकजुट करने में जुटे रहे। इन्होंने अपनी लेखनी और विचारों से, देश को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। इनका पूरा जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में संघर्ष करते हुए बीता। सावरकर के तरीके, सावरकर की लेखनी तब भी विवादित थी। आज भी विवादित है।
अब विचारधारा सावरकर की हो या गांधी की हो। आज भी लोगों के अपने-अपने मत हैं। अपने-अपने व्यक्तित्व, अपने-अपने विचार और अपने-अपने इच्छाओं के आधार पर, गांधी और सावरकर रोल मॉडल के रूप में चुने जाते हैं। सावरकर एक क्रांतिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक, लेखक, कवि, वक्ता, राजनेता और दार्शनिक थे।
इनके कई रूप थे। वे कुछ लोंगो को लुभाते हैं, तो वही कुछ को रास नहीं आते हैं। उनके जीवन को लेकर बहुत तरह के मिथक हैं। बहुत सी भ्रांतियां हैं। वही कई ऐसी बातें भी, जो शायद सही नहीं हैं। उनके विरोधी और उनके समर्थक पूरी तरह से सही हो। यह भी जरूरी नहीं। लेकिन हर व्यक्ति की कुछ विशेषताएं होती हैं। उसके कुछ योगदान होते हैं।

वीर सावरकर - एक परिचय
विनायक दामोदर सावरकर क्रांतिकारी चिंतक कवि लेखक वक्ता सामाजिक कार्यकर्ता राजनेता और दार्शनिक | |
वास्तविक नाम | विनायक दामोदर सावरकर |
उपनाम | वीर सावरकर |
जन्म तिथि | 28 मई 1883 |
जन्म स्थान | भागूर गांव, नासिक, मुंबई भारत |
माता-पिता | • दामोदर सावरकर (पिता) • राधाबाई सावरकर (माता) |
स्कूल/ कॉलेज | • शिवाजी हाई स्कूल, नासिक • फर्ग्युसन कॉलेज पुणे |
शैक्षिक योग्यता | • कला में स्नातक (1905) • इंग्लैंड से कानून की शिक्षा |
व्यवसाय | • भारतीय स्वतंत्रता सेनानी • राजनेता • कवि व लेखक • वकील • हिंदुत्व का प्रचार करना |
भाई-बहन | • गणेश दामोदर सावरकर (भाई) • नारायण सावरकर (भाई) • मैंना (बहन) |
पत्नी | यमुनाबाई सावरकर (विवाह – फरवरी 1901) |
बच्चे | • विश्वास सावरकर (बेटा) (बालचंद ग्रुप के कर्मचारी और लेखक प्रभात) • चिपलुणकर (बेटी) • रंजीत सावरकर (पोता) |
राजनीतिक पार्टी | अखिल भारत हिंदू महासभा |
उपलब्धि | • अभिनव भारत संगठन के संस्थापक 1904 • ‘मित्र मेला’ संगठन की स्थापना |
प्रेरणा स्रोत | • बाल गंगाधर तिलक • लाला लाजपत राय • बिपिन चंद्र पाल |
पुस्तकें व रचनाएं | • द स्टोरी ऑफ द वर्क ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस • भारतीय स्वातंत्र्य युद्ध • मेरा आजीवन कारावास • अंडमान की प्रतिध्वनियाँ • हिंदुत्व |
विवाद/ आरोप | • अंग्रेजों के चाटुकार • अंग्रेजों से माफीनामा |
मृत्यु तिथि | 26 फरवरी 1966 |
मृत्यु स्थल | मुंबई महाराष्ट्र |
मृत्यु का कारण | स्वेच्छा से देह का त्याग (इच्छामृत्यु) |
वीर सावरकर का प्रारंभिक जीवन
विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागूर गांव में हुआ। इनके पिता दामोदर पंत सावरकर थे। जिनके तीन पुत्रों में, यह दूसरे नंबर के पुत्र थे। गणेश दामोदर सावरकर, विनायक के बड़े, तो नारायण सावरकर इनके छोटे भाई थे। इनकी एक बहन मैना बाई थी। जब यह केवल 9 वर्ष के थे। तभी महामारी में, इनकी माता राधाबाई का निधन हो गया।
तब उनके बड़े भाई गणेश दामोदर की पत्नी ईशु बाई ने विनायक और नारायण राव का पुत्रवत पालन-पोषण किया। इसके 7 साल बाद, इनके पिता का भी प्लेग महामारी में देहांत हो गया। जिसके बाद उनके बड़े भाई गणेश सावरकर ने, न सिर्फ घर के पालन-पोषण की जिम्मेदारी संभाली। बल्कि इसके साथ ही परिवार को अच्छी शिक्षा भी उपलब्ध करवाइए। यानी एक आदर्श भाई के सभी कर्तव्यों का, उन्होंने निर्वहन किया।
वीर सावरकर अपने बड़े भाई गणेश सावरकर के जुझारुपन से बहुत प्रभावित थे। वे भी जल्द किसी आवेश आकर कदम उठाने के बजाय, पूरी रणनीति बनाकर, कार्य को करने में विश्वास करते थे।
वीर सावरकर की शिक्षा
1901 में वीर सावरकर ने नासिक के शिवाजी हाई स्कूल से, मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। वह बचपन से ही अत्यंत बुद्धिमान बालक थे। केवल 13 वर्ष की आयु में, उन्होंने स्वदेशी और स्वतंत्रता जैसे विषयों पर लिखी गई कविताएं। उनके कवित्त बुद्धि की साक्षी है। तभी 1901 में, इनका विवाह यमुनाबाई के साथ हो गया।
उस वक्त तमाम परेशानियों के बावजूद, उन्होंने आगे पढ़ाई करने का फैसला जारी रखा। पुणे के मशहूर फर्ग्युसन कॉलेज से उन्होंने स्नातक पूरा किया। इसके बाद, वह वकालत की पढ़ाई करने लंदन चले गए। लंदन के इंडिया हाउस में रहते हुए, सावरकर ने जोसेफ मेजिनी के आत्मचरित्र को मराठी में अनुवादित किया। उन्होंने इस की प्रस्तावना में, क्रांति के महत्व को बड़ी खूबसूरती से वर्णन किया।
दामोदर सावरकर से वीर सावरकर बनने की घटना
1897 में फैली प्लेग महामारी, महाराष्ट्र के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं थी। महाराष्ट्र की लगभग आधी आबादी, इसके चपेट में आ गई थी। अनाज और राहत सामग्री के जमाव से, पूरे प्रदेश में भूखमरी जैसे हालात फैल गए थे। उसी समय ब्रिटिश सरकार ने एक स्पेशल प्लेग कमेटी (SPC) का गठन किया। जिसमें वाल्टर चार्ल्स रैंड को पुणे की समिति का आयुक्त बनाया गया।
लेकिन रैंड ने निवारण के बजाय मनमानी करनी शुरू कर दी। जिससे आहत होकर, चापेकर भाइयों ने 22 जून 1997 को रैंड की गोली मारकर हत्या कर दी। इसके बाद, इन दोनों भाइयों को फांसी दे दी गई। यही वह घटना थी। जिसने 14 साल के साधारण बालक को, एक क्रांतिकारी बना दिया। ब्रिटिश शासन के खिलाफ यह आक्रोश ही था। जिसने दामोदर सावरकर को वीर सावरकर बना दिया। उन्होंने खुद को स्वराज के लिए समर्पित कर दिया।
वीर सावरकर का राजनीतिक गतिविधियों की ओर झुकाव
चापेकर भाइयों की घटना ने, इनके मन में क्रांति का बीज बो दिया था। जिसके कारण वे कालेज के दिनों में ही, अपने साथी नवयुवकों में राष्ट्रीयता और क्रांति भावना को जगाया करते थे। दामोदर का झुकाव पढ़ाई के दौरान ही, राजनीतिक गतिविधियों की तरफ हुआ। 1904 में वीर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ नाम का एक संगठन बनाया। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आंदोलन में, इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई।
वे बंगाल विभाजन के घोर विरोधी थे। वे स्वदेशी आंदोलन के भी पक्षधर थे। स्वदेशी आंदोलन की न्यू भी सावरकर ने हीं रखी थी। जिसे देशभर में बहुत समर्थन मिला। उनके इस आंदोलन में अरविंद घोष, रविंद्र नाथ ठाकुर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक व लाला लाजपत राय जैसे नाम शामिल थे। यह स्वदेशी आंदोलन के मुख्य उदघोषक माने जाते है।
आगे चलकर यही स्वदेशी आंदोलन महात्मा गांधी के आंदोलन का मुख्य केंद्र बिंदु बन गया। उन्होंने इसे स्वराज की आत्मा कहा था। इसी दौरान कई पत्र-पत्रिकाओं में, इनके लेख भी छपे। रूसी क्रांति का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। लंदन में उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई। जो उन दोनों इंडिया हाउस की देखरेख करते थे। 1907 में इंडिया हाउस में पहले स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती पर, इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई।
वीर सावरकर का कांग्रेस विरोधी होना
आज कुछ राजनीतिक पार्टियाँ, वीर सावरकर को अपने नायक व आदर्श के तौर पर देखती हैं। वहीं भारत की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी, इन पर हमेशा से ही निशाना साधती रही है। वह हमेशा ही इस नाम को, विवादित बनाए रखने की कोशिश करती है। इसका सबसे बड़ा कारण, सावरकर का कांग्रेस विरोधी होना माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि सावरकर एक समय, कांग्रेस के सबसे बड़े विरोधियों में से एक थे।
इस अधूरे सच को जानने के लिए, कुछ तथ्यों को जानना जरूरी है। कांग्रेस का गठन 28 दिसंबर 1885 में, 65 सदस्यों के साथ, ब्रिटिश सेवानिवृत्त अधिकारी ए ओ ह्यूम के नेतृत्व में हुआ था। लेकिन यह विचारणीय है कि क्या आज वही पार्टी सक्रिय है। लेकिन ऐसा नहीं है, भले ही कांग्रेस का एक लंबा इतिहास रहा है। लेकिन इसकी भूमिका समय-समय पर बदलती रही है। 1885 की कांग्रेस का मकसद, ब्रिटिश और भारतीयों के बीच सामंजस्य बढ़ाने के लिए था।
जो भारतीयों से ज्यादा अंग्रेजों की पक्षधर थी। इसलिए कोई पूर्ण स्वराज चाहने वाला क्रांतिकारी, इसका समर्थक कैसे हो सकता था। यही कांग्रेस महात्मा गांधी के समय, आजादी की लड़ाई का जरिया बनी। आजादी के बाद, यह एक राजनीतिक पार्टी में बदल गई। वैसे तो सावरकर पर पूरा जन्म ही, किसी न किसी उद्देश्य को समर्पित था। लेकिन उनका जन-जन में क्रांति की भावना जगाना, आजादी का पूरब रहा।
यानी कि यह इतिहास का वह महान कार्य था। जिसके लिए वीर सावरकर को जाना जाना चाहिए।
वीर सावरकर का स्वराज के लिए संघर्ष
सावरकर एक ओजस्वी कवि व लेखक होने के साथ, एक महान विद्यार्थी भी थे। इन्होंने देश-विदेश की बहुत सारी पुस्तकें पढ़ रखी थी। वह फ्रांसीसी क्रांति से सबसे ज्यादा प्रभावित थे। वह जानते थे कि जनचेतना के लिए 1857 की क्रांति को, जनसामान्य तक पहुंचाना जरूरी है। वैसे 1857 की इस घटना को, पहला स्वतंत्रता संग्राम का नाम भी सावरकर ने ही दिया था।
वह यह जानते थे कि जब भारतीय अंग्रेजी शासन से लड़ने के लिए, मानसिक रूप से मजबूत हो जाएंगे। तो स्वराज मिलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। उन्होंने 1909 में ‘The Indian War of Independence 1857’ किताब लिखी। जिसने पूरा इतिहास ही बदल दिया। यह पहला लिखित तथ्य है। जो 1857 की क्रांति के दबे इतिहास को, पूरी तरह देश और दुनिया के सामने लेकर आया।
अंग्रेज इस बात को भली-भांति जानते थे। इसीलिए उन्होंने इस किताब पर रोक लगा दी। यह पहला मौका था। जब सावरकर ब्रिटिश सरकार की नजर में आ गए। यह किताब सिर्फ एक किताब न होकर, क्रांति का एक प्रेरणास्रोत बन गई।
आगे चलकर भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे बड़े क्रांतिकारियों ने भी पुनः प्रकाशित किया। इधर अभिनव भारत ने भी विस्तार रूप ले लिया। जिसमे बड़े-बड़े क्रांतिवीर और राष्ट्रवादी भी शामिल हो गए। उनका यह संगठन कांग्रेस से अलग हुए गरम दल से प्रभावित था। 1 जुलाई 1909 को, अभिनव भारत के सदस्य व सावरकर के मित्र मदन लाल ढींगरा ने, एक अंग्रेजी अधिकारी सर विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दी।
इसके बाद मदनलाल को फांसी दे दी गई। जिसका सावरकर सहित पूरे संगठन ने विरोध किया। इसी के बाद, सावरकर अंग्रेजों के निशाने पर भी आ गए। सावरकर दूरदर्शिता दिखाते हुए, थोड़े समय के लिए पेरिस चले गए। यहाँ वे अपने मित्र हरदयाल और कृष्ण वर्मा के साथ आगे की रणनीति बनाने लगे। इसी समय अभिनव भारत के एक और सदस्य ने, जिला कलेक्टर जैक्सन की हत्या कर दी। सावरकर को अंग्रेजों द्वारा, हत्या की पिस्तौल मुहैया करवाने जैसे कई आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया। जब इन्हें पेरिस से लाया जा रहा था। तो उन्होंने भागने की कोशिश की। जिसमें सावरकर ब्रिटिश सैनिकों की गोली का शिकार हो गए। घायल अवस्था में, इन्हें पकड़ लिया गया। उसके बाद इन्हें अंडमान की सेल्यूलर जेल में डाल दिया गया। जो साक्षात नर्क माना जाता था।
सावरकर को अंग्रेजों द्वारा यातनाएं
सावरकर को बंद अंधेरे कमरे में जो यातनाएं दी गई थी। उसे सिर्फ यातना कहना पर्याप्त नहीं है। सावरकर को मानसिक और शारीरिक रूप से जितनी यातनाये दी गई। उन्हें जितना प्रताड़ित किया गया। उतना शायद ही, इतिहास के किसी अन्य क्रांतिकारी ने सहा है। उनके मनोबल को पूरी तरह तोड़ने के लिए, हर तरह के अमानवीय प्रयास किए गए।
उन्हें खाने के लिए, उबले चावल का चूड़ा और घास की सब्जी दी जाती थी। अंग्रेज जब सावरकर का मनोबल नही तोड़ सके। तो उन्हें 6 माह तन्हाई में बिताने पड़ा। जहाँ 7 दिन बेड़ियों से हाथ छत से बांधकर खड़ा रखा गया। 10 दिन त्रिभुज के आकार के लठ्ठे में पैर फैलाकर बांधकर रखा गया था। इतना ही नहीं, उन्हें बैरक में ही लैट्रिन व बाथरूम करने को कहा जाता था।
उन्हें बैल की जगह जोतकर, प्रतिदिन 30 किलो तिल का तेल निकलवाया जाता था। उनका मनोबल तोड़ने के लिए, हर महीने सावरकर के सामने लगभग 3 कैदियों को फांसी दी जाती थी। ताकि उनके मन में भय पैदा हो सके। इस तरह सावरकर ने कड़ी यातनाओं को सहते हुए, लगभग 10 वर्ष इस जेल में बिताए।
वीर सावरकर की माफी का सच
काला पानी की सजा के दौरान, सावरकर ने लगभग 6 प्रार्थना याचिकाएं भी दी थी। जिसके लिए कुछ विशेष विचारधारा के लोग, इस पर आलोचना करते हैं। लेकिन कुछ इतिहासकार, इसे सावरकर की रणनीतिक योजना का उत्साह हिस्सा बताते हैं। आज बहुत से आधुनिक इतिहासकार भी मानते हैं कि सावरकर के पास, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं था।
वह किसी भी तरह से जेल से बाहर आकर, आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहते थे। वह अपनी इस योजना में काफी हद तक कामयाब भी हुए। उन्हें 21 मई 1921 को स्वदेश वापस लाया गया। इन्हें पहले पुणे के यारवाड़ा जेल में रखा गया। उसके बाद, उन्हें रत्नागिरी जेल में डाल दिया गया। जनवरी 1924 में कुछ शर्तों के साथ सावरकर को रिहाई भी दे दी गई। इसके अतिरिक्त भी, उन्होंने बहुत से कार्य किए।
उनके यह कार्य, उस समय भारत की जरूरत हुआ करते थे। उन्होंने जाति प्रथा को समाप्त करने की पूर्ण कोशिश की। सभी जातियों को समानता का अधिकार दिलवाने की आवाज उठाई। सावरकर के यह सभी कार्य, महात्मा गांधी और भीमराव अंबेडकर से भी पहले किए गए थे। सावरकर क्रांतिकारियों में एक बड़ा नाम है। लेकिन विडंबना यह है कि आज सावरकर एक महान क्रांतिकारी से, ज्यादा राजनीतिक विवाद का कारण बन गए हैं।
जोकि हम सभी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। इस सभी के जिम्मेदार बहुत से पूर्व इतिहासकार भी थे। जो कुछ विशेष चिन्हित इतिहास को ही उभारते आए हैं। वरन इस क्रांति के प्रेरणास्रोत का कद, उनके योगदान जितना ही ऊंचा है। उनकी सोच से प्रभावित होकर ही, भारत में क्रांति की ज्वाला उठी थी। वीर सावरकर की सोच से ही प्रभावित होकर, सुभाष चंद्र बोस ने ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन किया था।
वीर सावरकर पर महात्मा गांधी की हत्या का आरोप
महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 में हुई। इसके बाद सावरकर को 5 फरवरी को हिरासत में लिया गया। 17 दिन बाद उन्होंने मुंबई के पुलिस आयुक्त को एक पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने ने कहा कि ‘यदि मुझे रिहा कर दिया जाता है। तो सरकार जब तक चाहे। मैं संप्रदायिक और राजनीतिक गतिविधियों से खुद को दूर रखूंगा।’ यह एक गैर जरूरी प्रस्ताव था।
इसने गांधी जी की हत्या में, सावरकर की भूमिका पर शक को और गहरा कर दिया। जबकि अदालत में इसे साबित नहीं किया जा सका। सावरकर की मृत्यु के कई साल बाद, उनकी भूमिका स्पष्ट हुई। जनवरी 1948 में गांधी जी की हत्या की 2 कोशिश में हुई थी। पहली बार एक पंजाबी शरणार्थी मदनलाल पाहवा ने, उन्हें मारने की साजिश की थी। लेकिन वह असफल रहा। दूसरी कोशिश नाथूराम गोडसे की। जिसमें उसे सफलता मिल गई।
गांधी जी की हत्या में आरोपी 8 आरोपी थे। जिनमे नाथूराम गोडसे, उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किश्तेया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय परचुरे थे। इसमें नवा सदस्य दिगंबर रामचंद्र बड़गे था। जो सरकारी गवाह बन गया। अदालत में दी गई बड़गे की गवाही के आधार पर ही, सावरकर का नाम इसमें जोड़ा गया था। लेकिन पर्याप्त सबूत ना मिलने के कारण इन्हें छोड़ दिया गया।
गोपाल गोडसे की सजा पूरी होने के बाद, उसे अक्टूबर 1964 में रिहा कर दिया गया। उसकी रिहाई का उत्सव मनाने के लिए, 11 नवंबर 1964 को, पुणे में कार्यक्रम आयोजित किया गया। जिसमें ‘तरुण भारत’ अखबार के संपादक जीवी केलकर भी सम्मिलित थे। केलकर का कहना था कि नाथूराम गोडसे अक्सर, उनसे गांधी की हत्या के फायदे पर चर्चा किया करता था।
केलकर के इस खुलासे से, पूरे देश में हलचल मच गई। आखिरकार सरकार ने मार्च 1965 में जस्टिस जी एल कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। आयोग को पता लगाना था। कि महात्मा गांधी की हत्या की साजिश पहले रची गई थी और क्या क्या सरकार को के बारे में पहले से कोई जानकारी मिली थी।
वीर सावरकर का देह त्याग
इस आयोग के गठन होने के कुछ महीने बाद ही, सावरकर ने स्वेच्छा से खाना पीना बंद कर दिया। उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उनका कहना था कि किसी व्यक्ति के जीवन का मिशन खत्म होने के बाद, यह बेहतर है। कि वह स्वेच्छा से प्राण त्याग दें। 1966 में इनकी इच्छा मृत्यु के बाद, कांग्रेस की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने, वीर सावरकर को महान क्रांतिकारी, सच्चा राष्ट्रभक्त और प्रखरवादी बताया था।
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